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Dr. Charlotte Krause : Her Life & Literature
सिद्धसेन का आगमन हुआ, उसको उपर्युक्त पण्डितों के मतानुसार, प्रस्तुत कुडंगेश्वरकुटुम्बेश्वर-महाकाल का मन्दिर समझा जा सकता है।
फिर भी ऐसा समझने पर यह आपत्ति पाई जाती है कि एक तो साहित्य में ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं पाया जाता है जिससे दोनों को गुप्त-काल में अभिन्न मानने का अधिकार प्राप्त होता हो। इसके विपरीत, जहाँ देखा जाय वहाँ कुडंगेश्वरकुटुम्बेश्वर एक भिन्न वस्तु और महाकाल एक भिन्न वस्तु का रूप धारण करते हैं। यदि दुराग्रह से उनका पारस्परिक अभेद मान भी लिया गया तो कुछ समय पश्चात् दो भिन्न स्थानों पर भिन्न नामों से अंकित उनके दो देवालय क्यों और कैसे बनाए गए, इसका कोई सन्तोषकारक समाधान नहीं किया जा सकता है।
यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि सिद्धसेन दिवाकर ( उपर्युक्त विवेचन के अनुसार ) गुप्तकालीन थे और यदि उनका अस्तित्व ( पूर्वोल्लिखित साहित्य के अनुसार ) एक 'विक्रमादित्य' की पदवी धारण करने वाले नरेश ही के समय में माना जाय, तो महाकवि कालिदास उनके समकालीन अथवा लगभग समकालीन ठहरेंगे। तब महाकाल मन्दिर सम्बन्धी दोनों प्रसिद्ध पद्य जो उस कवि के 'मेघदूत' ( 35 आदि ) और 'रघुवंश' ( 6.34 ) में आए हैं, श्री कुडंगेश्वर जैनतीर्थ के स्थापना-काल के आसपास में रचित होने चाहिए। अर्थात् वे या तो उस समय से कुछ पहले रचित हो सकते हैं, जबकि प्रस्तुत मन्दिर हिन्दू मन्दिर से मिटकर जैन मन्दिर बन गया था, अथवा उस समय के कुछ पश्चात् जबकि कुडंगेश्वर जिनालय मिटकर फिर हिन्दू मन्दिर बना। यदि यह कुडंगेश्वर मन्दिर और कालिदास-स्तुत मन्दिर अभिन्न थे, तो दूसरे विकल्प के अनुसार ऐसा मानना पड़ेगा कि वह प्रौढ़ 'त्रिभुवनगुरोर्धाम चण्डीश्वरस्य' ( मेघदूत 35 ), अर्थात् 'तीन भुवन के अधिपति चण्डीपति का निवासस्थान' उक्त पद्यों की रचना से थोड़े समय पहले जैनियों से चुराया हुआ एक जिनालय था, जो कि एक अत्यन्त असम्भाव्य और अनुचित कल्पना है।
यदि पहला विकल्प मान्य है कि कुडंगेश्वर जैन तीर्थ कालिदास के उक्त पद्यों के रचनाकाल के पश्चात् प्रतिष्ठित हुआ, तो इसका तात्पर्य यह है कि महान् हिन्दू देवता महाकाल के जिस मन्दिर को राजकवि ने अभी अवन्ति देश के मुख्य कौतुक का स्थान दिया था और अत्यन्त वेगपूर्वक प्रयाण करने वाले प्रवासी के लिए भी, यदि उसको सीधा मार्ग छोड़ना पड़े फिर भी दर्शन करने के योग्य बताया था, वही जगद्विख्यात्, वैभवशाली और विश्वपूज्य हिन्दू मन्दिर पश्चात् अवन्ति नरेश की आज्ञा से एक जैन मन्दिर में परिवर्तित किया गया। इतना ही नहीं किन्तु वे नरेश गुप्तवंशीय थे और जिस महादेवता का उत्थापन उन्होंने कराया, वह बहुत कर गुप्तवंश का कुलदेव था ( देखिए श्री एम. के. दीक्षित महाशय के निबन्ध का फुट-नोट नं. 75, इण्डियन कल्चर, ग्रन्थ 6, ई. सन् 1939, पृ. 385 )। इसके अतिरिक्त, उक्त
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