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Dr. Charlotte Krause : Her Life & Literature
में यही कह सकते हैं कि भिन्न-भिन्न मति की भिन्न सूचनायें करने वाले दो जुदे पक्ष हैं। इनमें से एक पक्ष रूढ़िपूजक पक्ष है, जो उपर्युक्त हानियों के सच्चे कारण नहीं जानता। परन्तु ऐसा जानता है कि इस हानि का कारण यह है कि आजकल पुरानी रूढ़ियों तथा पुराने मतों की लोग उपेक्षा करते हैं और आधुनिक पाश्चात्य शिक्षण विचार एवं सिद्धान्तों के प्रति विशेष रुचि दिखलाते हैं। इसलिये रूढ़िपूजकों का कथन है कि अपनी रूढ़ियों और मतों में कठोरतापूर्वक दृढ़ रहना चाहिए। इतना ही नहीं, किन्तु ऐसे नियम भी जो किसी समय लाभदायक थे, परन्तु इस समय के लिए हानिकारक हों, वे भी रखने चाहिये। उपर्युक्त मान्यता स्वीकार करने वाले लोगों का कथन है कि “अन्यधर्मियों के साथ सहकार-सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये, यूरोप-यात्रा करनी चाहिए, गृहस्थ लोगों को आगमाभ्यास भी करना चाहिये और पाश्चात्य शिक्षण को स्थान देना चाहिये।" संकुचितता एवं बुद्धिहीन रूढ़िवादिता इस पक्ष के मुख्य चिह्न हैं। यद्यपि इस पक्ष की भावना जैन-समाज में अभी तक बहुत प्रचलित है तथापि ऐसा कह सकते हैं कि इस पक्ष के अनुसार वे कम होते जाते हैं। प्रायः यह पक्ष थोड़े समय में निर्बल हो जायेगा।
दूसरा पक्ष अपने को सुधारक पक्ष बतलाता है। ये लोग यथार्थ रीति से जैन धर्मानुयायियों की संख्या घटने के सच्चे कारण जान गये हैं। तो भी ये लोग ज्ञातिनियमों के विरुद्ध सीधी रीति से हलचल करने का साहस नहीं करते हैं, किन्तु आड़े टेढ़े प्रयत्न करते हैं, अर्थात् नवीन पद्धति के अनुसार शिक्षण देने की सूचना देते और परिश्रम भी करते हैं। आगमों का अभ्यास करने का स्कालरों (Scholars) को उत्तेजन देते हैं। भारत में ही नहीं किन्तु पाश्चात्य देशों में भी जैन साहित्य का प्रचार करते हैं। जैन-धर्म के तत्त्व क्या हैं, रूढ़ियाँ क्या हैं, आदि बातें बतलाते हैं। स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिये प्रयत्न करते हैं। प्रत्येक स्थान में सर्वसाधारण प्रेम एवं सहकार की उद्घोषणा करते हैं। जैनों की शाखा तथा प्रतिशाखाओं में ऐक्य-स्थापन करने का प्रयत्न करते हैं। यह बात निस्सन्देह है कि उपर्युक्त प्रयत्न उचित हैं। कारण यह है कि जितने अंशों में शिक्षा का प्रचार होगा उतने ही अंशों में शिक्षण-प्रचार से यह बात निश्चित हो जाएगी कि "उपर्युक्त ज्ञाति-नियमों के कारण समाज की कितनी अधोगति हुई है और अब उन नियमों का नाश करना कितना आवश्यकीय कार्य है।"
और जितने अंशों में भिन्न-भिन्न शाखाओं तथा प्रतिशाखाओं में परस्पर जितना सम्बन्ध बढ़ेगा उतने ही अंशों में सुधारक पक्ष शक्तिशाली बनेगा और प्रत्येक को अपनाअपना उत्तरदायित्व मालूम होगा।
उपर्युक्त कथन के सिद्ध होने में अभी बहुत देर है। क्योंकि जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर यह दो मुख्य शाखायें अभी तक अन्तरिक्षजी, पावापुरीजी, राजगृही, सम्मेदशिखर, केशरियाजी और मक्सी आदि तीर्थस्थानों के अधिकार प्राप्त
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