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Adhunika Jaina Samāja Ki Sāmājika Paristhiti
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उपधान, उज़मण, अट्ठाई महोत्सव, दीक्षोत्सव, प्रतिष्ठा और संघ निकालना - वगैरह धार्मिक प्रसंगों में लाखों रुपये खर्च करते हैं। दो-चार वर्ष पहले चार हज़ार जैन श्रावक व चार सौ साधुओं का एक बड़ा संघ पाटन से गिरनार व कच्छ के लिये निकाला गया था। उसका संघपति एवं संरक्षक एक प्रसिद्ध गुजराती सेठ था। उस प्रसंग पर बारह लाख रुपये का खर्च हुआ था, ऐसा सुना जाता है। यद्यपि ऐसे धार्मिक कार्यों में पुष्कल द्रव्य-व्यय किया जाता है तथापि शिक्षा के लिये, जो समग्र धर्मों तथा सभ्यता की जड़ है, यथोचित रीति से अपनी लक्ष्मी का सद्व्यय करना बहुत जैन लोग अभी तक नहीं सीखे हैं। अपने पुत्र-पौत्रादि जैसे हो सके वैसे जल्दी द्रव्योपार्जन करने वाले तथा अपने जीवन में प्रतिष्ठा पाने वाले होवें, यही उनको फिक्र रहती है। इसकी कारण से शिक्षा-प्रचार की ओर कम ध्यान देते हैं।
बहुत से उच्च कुटुम्ब के जैनों ने अपना धर्म इस कारण से छोड़ दिया कि वे लोग बहुत पीढ़ियों से अन्यधर्मी राजा के नौकर थे और भोजन के कठोर नियमों के कारण दरबारी सभासदों के साथ स्पष्ट व्यवहार नहीं रख सकते थे, इसलिये उन सबों ने इन नियमों तथा धर्म को भी त्याग दिया। ऐसी घटना उदयपुर, जोधपुरादि राज्यों के प्राचीन शहर पर गुजरी, जिनके पूर्वज जो कि इतिहास में तथा महत्त्वशाली पात्र गिने जाते हैं, कट्टर जैनी हैं अभी उनमें मुश्किल से ही कोई जैन मिलेगा।
कई असन्तष्ट एवं घबराये हए जैन, जो कि अपने जाति-नियमों का उल्लंघन करने का साहस नहीं कर सकते थे, आर्य समाज में जा मिले, जो कि भारतीय आधुनिक जीवन में बहुत भाग लेता है और बुद्धिपूर्वक उदार व सुव्यवस्थित शिक्षण-संस्थाएँ खोलने में उत्साह दिखलाता है। मनुष्य-गणना की रिपोर्ट जो मात्र जाहिर जैनों की संख्या को सूचित करती है, वह इसके विषय में क्या जान सकती है कि “बहुत से मनुष्य जिन्होंने जाहिर में जैनधर्म छोड़ दिया है वे अपने हृदय में जैन हैं, जो धर्मभ्रष्ट होने पर अन्तःकरण से जैन हैं और आचार-विचार से जैन धर्मानुयायी हैं और जैन संघ को, जो कि चिन्तापूर्वक यह देखता रहे कि हमारी संख्या प्रतिदिन कम होती जाती है चाहे वे धर्मभ्रष्ट होने वाले लोग जैनधर्म के प्रति अन्तःकरण से प्रेम रखते हों, इससे क्या लाभ है?
जैनसंघ के नेताओं ने इस विषय में बहुत कुछ विचार किया और इन क्षतियों का सुधार करने के लिये बहुत कुछ प्रयत्न किये, परन्तु अभी तक किसी भी व्यक्ति ने ज्ञातियों और उनके नियमों की ओर कठोर दृष्टिपात करने का भी साहस नहीं किया है। यद्यपि वास्तव में इन बन्धनों के लिये इस जागृति तथा शक्ति-विकास के जमाने में जरा भी स्थान नहीं है।
तब फिर जैन संघ के अग्रेसरों ने कौन-कौन से उपाय किये? इसके उत्तर
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