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Appendix
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स्वीकार कर लिया। शिवपुरी में स्थायी निवास बनाकर आपने आगमों का अध्ययन उपाध्याय मुनि मंगलविजय जी के पास किया। शिवपुरी में ग्वालियर की महारानी सिंधिया सैर-सपाटे के लिये अक्सर आती रहती थीं। उनसे सम्पर्क होने पर आप महारानी साहिबा के निर्देशानुसार ग्वालियर के शिक्षा विभाग में डिप्टी डाइरेक्टर पद पर नियुक्त हुईं और कुछ दिन उज्जैन में ही सिंधिया शोध-संस्थान में क्यूरेटर पद पर कार्यरत रहीं। आप जैन साहित्य व आगम का निरन्तर स्वाध्याय करती रहीं। जैनधर्म पर गुजरात, मध्य प्रदेश, कलकत्ता में कई जगह भाषण भी दिये जो इतने प्रभावक रहे कि इनकी विद्वत्ता की सुगन्धि सर्वत्र फैलने लगी।
डॉ. क्राउज़े ने जो तीन महत्त्वपूर्ण भाषण दिये वे पुस्तिका के रूप में श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर से प्रकाशित हुए। जिनके नाम इस प्रकार हैं -
1. An Interpretation of Jaina Ethics 2. A Kaleidoscope of Indian Wisdom. 3. The Heritage of the Last Arhat.
जब ये पुस्तिकायें देश-विदेश भेजी गईं तो इनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई। इनके प्रशंसकों में हैम्बर्ग ( जर्मनी ) के एल. ऑल्सडोर्फ, बोन (जर्मनी) के डॉ. हर्मन जैकोबी के अलावा नार्वे, स्वीडन, चेकोस्लोवाकिया, रूस, अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि के विदेशी विद्वान मुख्य थे। इनमें से कई विद्वानों ने डॉ. क्राउज़े को बधाई देने के लिये आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरि जी को पत्र दिये। ये पत्र "लेटर्स टू विजयेन्द्र सूरि" पुस्तक में सन् 1939 में प्रकाशित हुए हैं।
डॉ. क्राउज़े के लेख सन् 1922 से ही लेपज़िग की पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे थे। सन् 1925 में लेपज़िग की पत्रिका Asia Major ( Phil. Hab. Schrift, Vol. June 1923 ) में "नेसकेतरी कथा : एक राजस्थानी कहानी" व्याकरण की पूर्ण जानकारी के साथ छपी है। इसी कहानी पर डॉ. क्राउज़े ने पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की थी। सन् 1925 में भारत आने के बाद इनके लेख गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी में, कलकत्ता रिव्यू, जैन-सत्य-प्रकाश, अनेकान्त आदि पत्रिकाओं में छपे। सेन् 1944 में सिंधिया सरकार ने 'विक्रमस्मृतिग्रन्थ" नामक महाग्रन्थ प्रकाशित किया जिसमें "जैन साहित्य और महाकाल मन्दिर" पर 30 पृष्ठ का आपका बृहत् लेख नई शोध दिशा के साथ हिन्दी में प्रकाशित हुआ। लेख के अन्त में डॉ. क्राउज़े ने लिखा है - "भारतीय संस्कृति के प्रगाढ़ प्रेम से प्रेरित होकर मैंने विदेशी होते हुए भी यह निबन्ध हिन्दी में ही लिखा। अतः यदि इसमें कुछ त्रुटियाँ रह गयी हों तो पाठक क्षमा करें, ऐसी प्रार्थना है : लेखिका।" जैन-सत्य-प्रकाश में तो इनके लेख सदा गुजराती भाषा में छपते थे। सन् 1948 में उज्जैन से प्रकाशित "विक्रम वॉल्यूम' में डॉ. शैलौट क्राउज़े का “सिद्धसेन दिवाकर और विक्रमादित्य'
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