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Dr. Charlotte Krause : Her Life & Literature
भाग चौहान, राठौण, सोलंकी और अन्य प्रसिद्ध राजपूत गोत्रों का वंशज है, जिनके नाम आजकल भी बहुत से जैनों के गोत्रों में पाये जाते हैं।
उपर्युक्त उल्लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है कि बहुत शताब्दियों से मात्र वणिक् ज्ञाति ही के लोग जैनधर्म के प्रतिनिधि होते आए हैं। इतना ही नहीं किन्तु वणिक् ज्ञातियों के ओसवाल, श्रीमाल, पोरवाल, वायड और मोढ आदि बड़े-बड़े भाग शुद्ध जैन ज्ञातियों के रूप में थे। चौरासी वणिक् ज्ञातियाँ, जो कि इतिहास में प्रसिद्ध हैं, उनके सम्बन्ध में इतना ही निश्चित है कि इनका एक भाग अवश्य जैनधर्मानुयायी था। क्योंकि उनमें से बहुत से लोगों ने मन्दिरादि निर्माण कराकर जिन-प्रतिमायें व मन्दिरों के शिलालेखों में अपना नाम सदा के लिये लिखवाया है। जैन साधुओं की शिथिलता व उदासीनता से तथा उत्साही वैष्णवधर्म के वल्लभाचार्य सम्प्रदाय के उत्थान के परिणाम से सोलहवीं, सत्रहवीं शताब्दी में उपर्युक्त इन प्राचीन जैन वणिक् ज्ञातियों के बहुत मनुष्यों ने अपना मूल धर्म छोड़कर वैष्णव धर्म अंगीकार किया था। पूज्यपाद स्व. जैनाचार्य श्रीमद्बुद्धिसागरसूरि जी स्वसम्पादि जैनधातु प्रतिमालेखसंग्रह की प्रस्तावना में फर्माते हैं, "मैंने सुना था कि सूरत शहर की एक पब्लिक सभा में एक वैष्णव पण्डित ने अभिमानपूर्वक कहा था कि वल्लभाचार्य के सम्प्रदाय वालों ने तीन लाख जैनों को वैष्णव धर्मानुयायी बनाया था।" लेखक महानुभाव का कथन है कि उपर्युक्त कथन प्रायः सत्य है।
अब प्राचीन जैन ज्ञातियों ने, इस कारण कि उनके अनुयायियों को प्रारम्भ से ही स्वमतानुसार अपवित्र एवं मिथ्यात्वी अन्यधर्मी लोगों के साथ रहना पड़ता था, स्वतन्त्रतापूर्वक प्राचीन समय में ही भोजन और कन्या-व्यवहार सम्बन्धी कई एक कठोर नियम बना लिये थे और जब फिर से ये ज्ञातियाँ श्रीमाल, वीसा श्रीमाल, दस्सा श्रीमाल, लाडुआ श्रीमाल एवं वीसा ओसवाल, दस्सा ओसवाल, पाँचा ओसवाल
और अढईया ओसवालादि भिन्न-भिन्न पेटा-ज्ञातियों ( उपजातियों ) में विभक्त हो गईं, तब उन पेटा ज्ञातियों में भी उपर्युक्त नियम अधिक संख्या में बनने लगे। अब गुजरात, काठियावाड और मावाडादि प्रान्तान्तर्गत स्थानानुसार जहाँ पर इन पेटा-ज्ञातियों के समूह निवास करते थे उन्हीं के अनुसार वहाँ-वहाँ पर फिर इन पेटाज्ञातियों की भिन्नभिन्न शाखायें उत्पन्न हुई।
फिर भी इन सब ज्ञातियों तथा उप-ज्ञातियों की प्रत्येक शाखा अपने-अपने भोजन तथा कन्या-व्यवहार सम्बन्धी नियम दत्तचित्त होकर पालने लगी। इतना ही नहीं किन्तु यह ज्ञातियाँ भिन्न-भिन्न धार्मिक समुदायों में विभक्त हो गईं। इस प्रकार जैन वणिक् ज्ञाति मात्र श्वेताम्बर एवं दिगम्बर इन दो मुख्य भागों में ही विभाजित नहीं हैं। बल्कि श्वेताम्बर जैन ज्ञाति में भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, श्वेताम्बर स्थानकवासी, श्वेताम्बर तेरहपंथी, ये शाखायें हो गईं। दिगम्बर सम्प्रदाय में भी तेरहपंथी तथा बीसापंथी ये दो
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