________________
Adhunika Jaina Samāja Ki Sāmājika Paristhiti
265
किंतु उत्तर तथा मध्य भारत में जैनधर्म की पूरे श्वेताम्बर और दिगम्बर ये दो मुख्य शाखाएँ स्वकीय विविध प्रतिशाखाओं सहित विद्यमान हैं। वहाँ जैन स्कूलादि शिक्षालय मौजूद हैं और वहाँ पर श्रावक व साधु-मुनिराज जैनधर्म के प्रचार-कार्य के लिए उत्साहपूर्वक परिश्रम करते हैं। उस देश में जैन इस गम्भीर आशय वाले पद से विभूषित लोगों को अति कठोर तपस्या तथा सूक्ष्मक्रियादि करने का कर्तव्य उस जैन शब्द के ही अन्तर्गत रहा हुआ है। जैन इस उपाधि से युक्त व्यक्ति जन्म से ही ज्ञाति व पेटा ज्ञाति के नियमों में बँधा हुआ है। जिन ज्ञातियों तथा पेटा ज्ञातियों का प्रभाव उस व्यक्ति के समस्त कौटुम्बिक कार्यों में आजीवन दबाव डालता है, यह बात भी जैनधर्म में समाविष्ट है।
वाचकों के मन में आश्चर्यपूर्वक यह प्रश्न अवश्य उत्पन्न होगा कि जैनधर्म जिसके विषय में यह बात प्रसिद्ध है कि वह विश्वप्रेम एवं उदारता का समर्थक है और समस्त स्वामी भाइयों को ज्ञाति के भेदभाव को छोड़कर परस्पर सदृश भक्तिभाव रखने की प्रेरणा करता है, उस धर्म का ज्ञाति तथा पेटा ज्ञाति के नियमों से क्या सम्बन्ध? तो भी उत्तर व मध्य भारत के जैनों में इतिहास ने ज्ञाति तथा धर्म इन दोनों में परस्पर विरुद्ध तत्त्वों का अश्रद्धेय व अभंग सम्बन्ध करा दिया है।
उत्तर तथा मध्य भारत में जैनधर्म के लगभग समस्त आधुनिक प्रतिनिधि वणिक् जातियों के हैं, जो वणिक् जातियाँ भारतीय प्राचीन समाजान्तर्गत वैश्य समुदाय की प्रतिनिधि हैं। वणिक जातियाँ ब्राह्मण तथा क्षत्रिय जातियों के समान प्राचीन संस्थाएँ हैं, जिनमें से कई जातियों का उल्लेख ईस्वी सन् की छठी शताब्दी और उससे भी पहले पाया जाता है। यदि उत्तर और मध्य भारत की ब्राह्मण, क्षत्रिय और वणिक् जातियों के इतिहास की ओर दृष्टिपात करेंगे तो मालूम होगा कि वे सब जातियाँ मारवाड़ तथा गुजरात के कतिपय स्थानों के समाजों से उत्पन्न हुई हैं। उन स्थानों के नामों का प्रभाव जातियों के नामों में बहुत अंशों में आजकल भी विद्यमान है। इस प्रकार वार्तमानिक मोढ़ ब्राह्मण और मोढ़ वणिक् मुढ़ा गाँव से, नागर ब्राह्मण तथा नागर वैश्य बड़नगर नामक स्थान से, ओसवाल वणिक् आशियानगरी और श्रीमाल वणिक् भीनमाल नामक स्थान से उत्पन्न हुए हैं। ये ही ब्राह्मण, जो प्राचीन समय में मूलरूप से जैन थे, उन्होंने शंकराचार्य तथा उनके अनुयायियों के प्रभाव की प्रबलता से जैनधर्म को सदा के लिये त्याग दिया। इस कारण से ब्राह्मण जाति ने जैनधर्म के अन्तिम इतिहास में कोई भी महत्त्वशाली स्थान हस्तगत नहीं किया। दूसरी ओर जो क्षत्रिय मूल से जैन थे, उन्होंने क्रम से अपना प्राचीन सैनिक व्यवसाय और धंधा छोड़कर ऐसा व्यवसाय स्वीकार किया था जो जैनधर्म के सिद्धान्तानुसार कम हिंसाकारक है अर्थात् वे व्यापार करने लगे और उनकी ज्ञातियों का वणिक् ज्ञातियों में समावेश हो गया। हम निश्चित रीति से जानते हैं कि आधुनिक ओसवाल, श्रीमाल और पोरवाल ज्ञातियों का एक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org