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Jaina Sāhitya aur Mahākāla-Mandira
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हुई, आज गन्धवती घाट के पास आए हुए श्वेताम्बर मन्दिर में 'अवन्ति पार्श्वनाथ' के नाम से पूजित है।
इन उदाहरणों से विदित है कि प्राचीन उज्जयिनी में जैनधर्म का स्थान इतना ऊँचा था कि उससे भी महाकालेश्वर मन्दिर की उत्पत्ति की उपर्युक्त कल्पना को उत्तेजना और इतनी शताब्दियों पर्यन्त प्रचलित रहने की शक्ति प्राप्त हो सकी।
प्रस्तुत निबन्ध पुष्कल अन्वेषण और मनन का फल है। उसमें पाठकों को जो कुछ नई बातें ज्ञात हों, वे आधार-रहित नहीं हैं। तथापि कतिपय बातें अभी तक प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध नहीं हुई हैं। यदि किसी दिन सिंहपुरी की भूमि में पट्टिका, अथवा श्री आदिमहाकालेश्वर के स्थान पर उसके प्रारम्भिक इतिहास का कोई शिलालेख आदि निकले, तो उपर्युक्त विवेचन को यथार्थता की कसौटी प्राप्त हो सकेगी। ऐसा अवसर शीघ्र उपलब्ध हो, यह इस रमणीय विषय के अन्वेषण में रस लेने वाले प्रत्येक इतिहास एवं पुरातत्त्ववेत्ता की अन्तःकरण से कामना होगी, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है *। सन्दर्भ 1. सम्पादक जिनविजय, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, नं. 6, शान्तिनिकेतन, 1935। 2. देखिए : रायबहादुर हीरालाल, कैटेलॉग ऑफ संस्कृत ऐण्ड प्राकृत
मैन्युस्क्रिप्ट्स, नागपुर, 1926, प्रस्तावना, पृ. 12 आदि। 3. श्रीसम्यक्त्वसप्तति, संशोधक मुनि श्री वल्लभविजय, श्रेष्ठी देवचन्द्र लालभाई
जैन पुस्तकोद्धार ग्रंथांक 35, ई. सन् 1916। 4. संशोधक और प्रकाशक पं. भगवानदास, वि. सं. 1996। 5. राजनगर, ई. सन् 1938। 6. सम्पादक जिनविजय मुनि, सिंघी जैन ग्रंथमाला नं. 2, शान्तिनिकेतन, ई. सन्
19361 7. वही, नं. 1, ई. सन् 1933 | 8. सम्पादक जिनविजय मुनि, सिंघी जैन ग्रन्थमाला नं. 13, अहमदाबाद
कलकत्ता, ई. सन् 1940। 9. वही, नं. 10, शान्तिनिकेतन, ई. सन् 1934। 10. चतुः शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं, श्री आगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे
नं. 46, सन् 1927, पृ. 301 * भारतीय संस्कृति के गाढ़ प्रेम से प्रेरित होकर मैंने विदशी होते हए भी यह निबन्ध हिन्दी में लिखा। अतः यदि इसमें कुछ त्रुटियाँ रह गई हों तो पाठक क्षमा करें, ऐसी प्रार्थना है - लेखिका।
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