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Jaina Sāhitya aur Mahākāla-Mandira
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उस स्थान पर, 'चौबीस खम्भों के पास के 'कोटमहल्ले' में ( 'गन्दे नाले' और महाकाल के बीच में ), आज भी कापालिक साधुओं के 'जंगम' एवं 'चाकूकतिया' नाम से प्रसिद्ध गृहस्थ-लिंगी शिष्य-सन्तति की बस्ती है। वहाँ नया नगर बसाया जाने से विख्यात गंगागिर कापालिक ('औघड़' ) जो कि मृत-कलेवर-भक्षक स्थानीय कापालिक साधु-परम्परा के एक असली प्रतिनिधि थे, क्षिप्रा नदी के सामने के किनारे पर रहने लगे थे, जहाँ कि उनका देहान्त कुछ वर्षों पहले हुआ है, ऐसा अनेक उज्जैन-निवासियों को स्मरण है। इन बातों से श्री हरिषेण के उस कथन की सत्यता का अनुमान किया जा सकता है कि उक्त स्थान पर कापालिकों का विशेष अधिकार था।
श्री हरिषेण द्वारा उल्लिखित कलकलेश्वर का मन्दिर भी उपर्युक्त स्थान के पास श्री के. बी. डोंगरे कृत 'श्रीक्षेत्र अवन्तिका, नामक ग्रन्थ (ए. डी. प्रेस, ग्वालियर, प्रथम आवृत्ति, पृ. 55 ) की सहायता से पटनी बाजार से मुड़ने वाली एक सकरी गली में आए हुए 'मोदी जी के कुएँ' की उत्तर दिशा में एक झोंपड़ियों से घिरे हुए बाड़े में छिपा हुआ पाया जाता है। वह छोटा ही है, परन्तु उसके दरवाजे के परिकर के शिलापट्टों पर उत्कीर्ण दम्पति-मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। ये अति प्राचीन कारीगरी के अवशेष और पुरातत्त्ववेत्ताओं के लक्ष्य योग्य ज्ञात होते हैं। इस मन्दिर का विवरण हिन्दू धर्म के दृष्टिकोण से 'स्कन्दपुराण' के अवन्ति-खण्ड ( अध्याय 18 ) में कथित
श्री अवन्तिसुकुमाल के स्मारक मन्दिर का कोई भी उल्लेख श्री हरिषेण के प्रस्तुत ग्रन्थ में नहीं पाया जाता है।
इस ग्रन्थ के साथ निकट सम्बन्ध रखने वाले कतिपय अन्य दिगम्बरीय कथा-संग्रह ग्रन्थों में भी श्री अवन्तिसुकुमाल का कथानक मिलता है, ऐसा श्री उपाध्ये की उपर्युक्त भूमिका (पृ. 78 और पृ. 63 आदि ) में दिए हुए साधनों से ज्ञात होता है। उनमें निम्नलिखित ग्रन्थ हैं :
1. श्री श्रीचन्द्र कृत अपभ्रंश पद्य-बद्ध 'कथाकोश' ( रचनाकाल लगभग ईस्वी की ग्यारहवीं शताब्दी ), कथा 145 ।
2. श्री प्रभाचन्द्र कृत संस्कृत गद्य-बद्ध 'कथाकोश' (वही, रचनाकाल ), कथानक 631
3. प्राचीन कण्णडा गद्य-बद्ध 'बड्डाराधने' (ई. सन् 898 और 1403 के बीच में रचित), कथानक 1, जिसमें 'भत्तपरिण्णा-पइण्णं' और 'भगवती आराधना' की पूर्वोल्लिखित प्राकृत गाथा भी पाई जाती है।।
4. श्री नेमिदत्त-ब्रह्मचारी कृत 'आराधना-कथाकोश' ( रचनाकाल ईसा की
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