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Dr. Charlotte Krause : Her Life & Literature
संवत् 1 की चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन जैनधर्म अंगीकार किया और 'कुडुंगेश्वर ऋषभदेव' को उक्त ग्राम अर्पित किए।
यह उल्लेख स्पष्ट और विस्तृत है। इसलिए पूर्वोक्त तीन उल्लेखों को और उनकी विशेषताओं को कुछ देर के लिए छोड़कर सर्वप्रथम इसी चौथे उल्लेख पर ध्यान देना उचित है।
पहिले उसमें दिए हुए समय-निर्देश का निरीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि विक्रम संवत् 1 की चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन गुरुवार कथित है। मेरी प्रेरणा से श्री आर. वी. वैद्य, एम.ए., बी.टी., ज्योतिर्विद्यारत्न, सुपरिण्टेण्डेण्ट, श्री जीवाजी ऑब्जर्वेटरी, उज्जैन ने ज्योतिषशास्त्रानुसार गणित करने का कष्ट उठाकर इस बात का पता लगाया है कि विक्रम संवत् 1 ( अर्थात् ई. सन् 56 बी.सी. ) की चैत्र शुक्ल प्रतिपदा गुरुवार ( अथवा शुक्रवार ) हो सकती है, यदि संवत् का आरम्भ कार्तिक से माना जाय। इस रीति से विक्रम संवत् का प्रारम्भ कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से गिनना प्राचीन जैन-प्रणाली के अनुकूल है। इसका प्रमाण 'तित्थोगालीय-पइण्णयं' में पाया जाता है। ( देखिए ‘पट्टावली-समुच्चय', मुनि दर्शनविजय सम्पादित, वीरमगाम, ई. सन् 1933,1, परिशिष्ट 3, पृ. 197 ), जिसके अनुसार वीर-निर्वाण-संवत्, जो कि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा ही से प्रारम्भ होता है और विक्रम-संवत् के बीच का अन्तर ठीक 470 वर्ष है। आगे वीर-निर्वाण-संवत् और शालिवाहन-संवत् के बीच का अन्तर 605 वर्ष और 5 महीनों का कथित है। इसका तात्पर्य यह है कि 'तित्थोगालीय-पइण्णयं' के सम्पादन-काल में अर्थात् ई. सन् की पाँचवीं शताब्दी के पहले, जैन-कालगणना के अनुसार विक्रम संवत् कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा ही से और शालिवाहन-संवत् आज की भाँति चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ही से प्रारम्भ हुआ करता था। इस रीति से उपर्युक्त समयनिर्देश अबाधित है।
तथापि कुछ अन्य बातों से प्रस्तुत विवेचन की प्रामाणिकता में शंका उत्पन्न होती है। उनमें 'चित्रकूटमंडल' का उल्लेख है। चित्रकूटमंडल में वसाड और धुंटारसी गाँव कथित हैं। दोनों गाँव आज भी प्रतापगढ़ के पास विद्यमान होने से ज्ञात होता है कि प्रस्तुत चित्रकूट आज का चित्तोड़ ही हो सकता है। यह चित्तोड़ विक्रम संवत् 609 में बसाया गया और बसाने वाले चित्रांगद सोरिया से उसका नाम पड़ा ( देखिए उपर्युल्लिखित 'पट्टावली-समुच्चय' 1, पृ. 202 )। इससे उक्त चित्रकूटमंडल का विक्रम संवत् 1 विद्यमान होना अशक्य है।
सन्देह का एक दूसरा कारण 'श्वेताम्बर' शब्द है, जो कि प्रस्तुत तीर्थकल्प में तीन बार, और विशेषतः उपर्युक्त शासनपट्टिका के लिखने को नियोजित अधिकारी के लिए प्रयुक्त है। वास्तव में 'श्वेताम्बर' शब्द का प्रयोग साहित्य में उस समय से हो सकता है जबकि जैन शासन दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो सम्प्रदायों में विभक्त हो
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