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Dr. Charlotte Krause : Her Life & Literature
भाग की चारों दीवारों में से एक है। उसकी बाह्य आकृति से यही अनुमान ठीक जंचता है।
फिर ऐसी निर्मिति का वहाँ क्या मूल प्रयोजन था और उसका आगमन श्री कुटुम्बेश्वर महादेव के मन्दिर में कहाँ से और कैसे हुआ, ये प्रश्न उठते हैं।
मूलतः ऐसी शिल्प-कृतियाँ किस उद्देश्य से बनाई जाती थीं, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। इतना ही स्पष्ट है कि उनका आकार अवश्य तक्षशिला आदि के छोटे बौद्ध-स्तूपों का स्मरण कराता है। इसलिए वे भी कदाचित् आरम्भ में मुनि-महात्माओं के स्तूप अर्थात् स्मारक-विशेष थे, ऐसा अनुमान किया जा सकता है।
यदि यह कल्पना मान्य हो और कुडंगेश्वर महादेव का सम्बन्ध कुटुम्बेश्वर महादेव के साथ जोड़ा जाना उचित समझा जाय, तो प्रस्तुत शिलापट्ट को श्री अवन्तिसुकुमाल मुनि के समाधिस्तूप का अवशेष मानने में क्या आपत्ति है? इस अनुमान का कुछ समर्थन शिलापट्ट की केन्द्रस्थ, फणयुक्त मूर्ति से होता है। यदि उसे श्री पार्श्वनाथ ही की समझी जाय, जिसका सम्बन्ध उक्त स्मारक के साथ अनेक ग्रन्थों में कथित है ( देखिए ऊपर की अवतरणिकाएँ)। तथापि उसके अतिरिक्त एक स्वतन्त्र पार्श्वनाथ प्रतिमा भी उक्त स्मारक-स्तूप के पास स्थापित थी और स्तूप तथा प्रतिमा दोनों एक भव्य मन्दिर में स्थित थे, ऐसा भी उक्त साहित्य से समझा जा सकता है।
यह स्मारक मन्दिर श्री अवन्तिसुकुमाल की माता भद्रा या सुभद्रा, अथवा उस भद्रा या सुभद्रा के पौत्र के हाथ का (कहीं मुनि के पिता या पत्नियों के हाथ का भी ) बनाया हुआ कथित है, जिनकी समृद्धि अपार थी। कदाचित् इन बनाने वालों ने प्राचीन जैन स्थापत्य की प्रणाली और मथुरा के जैन पुरातत्त्व के प्राचीन अवशेषों के उदाहरणों के अनुरूप अपना ( या अवन्तिसुकुमाल के पुत्र ने अपनी पितामही का इत्यादि) कोई स्मारक-चिह्न प्रस्तुत मन्दिर बनवाया हो। फिर ऐसा क्यों नहीं माना जाय कि 'स्कन्दपुराण' के 'अवन्तिखण्ड' में उल्लिखित और एक समय में कुटुम्बेश्वर के मन्दिर में विद्यमान 'भद्रपीठधरा भद्रकाली देवी' का चित्र मूलतः उक्त ‘भद्रा' ही का स्मारक-चिह्न था? यह कल्पना इस कारण से कुछ सुसंगत है कि हिन्दुओं की 'भद्रकाली देवी' का रूप शिल्पशास्त्र के नियमानुसार विकराल ही है और उनके लिए 'भद्रपीठधरा' के विशेषण का प्रयोग देखने से आश्चर्य उत्पन्न होता है ( देखिए हिन्दू शिल्प-शास्त्र के सम्बन्ध में श्री एस. श्रीकंठ शास्त्री का निबन्ध क्वार्टी ऑफ दी मिथिक सोसायटी 34, 2-3 में पञ0 183 आदि)। इसके अतिरिक्त जिस स्थान पर 175 ( या 184 ) तीर्थङ्कर प्रतिमाओं के '84 महादेव' बन सके, उसी स्थान पर यह परिवर्तन भी सम्भाव्य समझा जा सकता है। (7) मुनि-स्मारक-मन्दिर के इतिहास का सारांश
पूर्वोक्त विवेचन से निम्नलिखित घटन-श्रृंखला का अनुमान किया जा सकता है :
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