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Jaina Sāhitya aur Mahākāla-Mandira
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कुडुंगेश्वरदेवस्य कल्पमेतं यथाश्रुतम् ।
रुचिरं रचयां चक्रुः श्रीजिनप्रभसूरयः ।। 1 ।।। अर्थात् “कुडुंगेश्वर देव का यह सुन्दरकल्प श्री जिनप्रभ सूरि ने जैसा सुना वैसा रचा ।। 1 ।।"
इससे विदित है कि श्री जिनप्रभ सूरि ने प्रस्तुत तीर्थ को अतिप्राचीन इतिहास की एक आदणीय वस्तु समझकर और उसकी तत्कालीन विद्यमानता का प्रश्न छोड़कर उसके सम्बन्ध में प्रचलित किंवदन्तियों के संग्रह-रूप में अपना कल्प रचा है। यह इससे भी स्पष्ट है कि उस समय में विद्यमान जैन तीर्थस्थानों की सूची में ( जैसा कि पहले बताया जा चुका है ) कुडुंगेश्वर तीर्थ का नाम नहीं है। ऐसी स्थिति में यह समझा जा सकता है कि उपर्युक्त समयनिर्देश इत्यादि बाधित बातें ऐसी किंवदन्तियों के आधार पर प्रस्तुत 'तीर्थकल्प' में प्रविष्ट हो पाई होंगी।
अथवा यह भी अशक्य नहीं है कि जो शासनपट्टिका श्री जिनप्रभ सूरि ने देखी वह विक्रम संवत् के उल्लेखों से अंकित पीछे के समय में लिखे हुए नकली शिलालेख, ताम्रपत्र आदि में से एक थी, जो कभी-कभी हस्तगत होते हैं।
फिर भी यह निर्विवाद है कि जिस कुडुंगेश्वरदेव का अवलम्बन कर ऐसे आशय की एक जाली शासनपट्टिका बनाई जा सकी और जिसके सम्बन्ध में वृद्धपरम्परा के ऐसे संस्मरण प्रचलित हो सके, उस कुडुंगेश्वरदेव का नाम किसी समय में एक प्रसिद्ध वस्तु और उसका मन्दिर एक महिमा-संयुक्त जैन तीर्थस्थान अवश्य था।
इस बात का समर्थन 'प्रबन्धचिन्तामणि' के अन्तर्गत 'कुमारपाल-प्रबन्ध' (पृ. 78 ) के एक वृत्तान्त से भी होता है। उसके अनुसार गुजरात के भावी राजा कुमारपाल वर्तमान राजा सिद्धराज के भय से भागते फिरते हुए मालव देश में 'कुडंगेश्वर' के मन्दिर में आते हैं। उस कुडंगेश्वर के मन्दिर में वे वहाँ की 'प्रशस्तिपट्टिका' में इस आशय का एक पद्य पढ़ते हैं कि विक्रम से 1999 वर्ष पश्चात् स्वयं कुमारपाल ही विक्रम के सदृश एक राजा होंगे।
उक्त पद्य अन्य अनेक ग्रन्थों से भी ज्ञात है। मूल से उसमें श्री सिद्धसेन दिवाकर श्री विक्रमादित्य का सम्बोधन करते हुए कल्पित हैं।
"पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह' (पृ. 38 तथा 123 ) में भी कुमारपाल का यह वृत्तान्त कथित है। परन्तु वहाँ कुडंगेश्वर के स्थान पर 'कुण्डिगेश्वर' और 'कुण्डगेश्वर' यह ही विकृत रूप पाए जाते हैं और उपर्युक्त पद्य सिद्धसेन-कथित ही बताया जाता
कुडंगेश्वर नाम के ये उल्लेख भी ( उनके ऐतिहासिक मूल्य का प्रश्न छोड़कर ) कुडंगेश्वर जैन-तीर्थ की विद्यमानता की एक अस्पष्ट प्रतिध्वनि समझे जा सकते हैं।
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