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Dr. Charlotte Krause : Her Life & Literature
पाया होगा। ऐसी दशा में सिद्धसेन दिवाकर को ही उक्त मूर्ति के प्रतिष्ठाता मानने में कुछ आपत्ति नहीं है। इससे उपर्युक्त संशय का भी निराकरण होता है।
अधिक चिन्तनीय है आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर और 'संवत्सर प्रवर्तक विक्रमादित्य' का समकालीन होना, जो कि पं. सुखलालजी और बेचरदासजी ने 'सन्मतितर्क' की भूमिका में सन्दिग्ध ही नहीं, असम्भव बताया है ( देखिए उसका अंग्रेजी अनुवाद, श्री जैन श्वेताम्बर एजुकेशन बोर्ड, ई. सन् 1933 )। उक्त विद्वानों ने सिद्धसेन आचार्य का गुप्त-काल में होना अनुमान किया है। यद्यपि दोनों की समकालीनता का समर्थन उपर्युल्लिखित और अन्य प्राचीन जैन ग्रन्थों द्वारा निश्चित रीति से किया जाता है, जिनमें विशेषतः गुरुपट्टावलियाँ भी हैं, तथापि उक्त पण्डितों के प्रमाण महत्त्वपूर्ण और उनका कथन यथार्थ ज्ञात होता है। अर्थात् यदि श्री सिद्धसेन दिवाकर ने वास्तव में किसी एक विक्रमादित्य राजा को धर्मोपदेश दिया है तो वह केवल विक्रमादित्य पदवी से विभूषित कोई गुप्तवंशीय राजा या सम्राट ही हो सकता
ऐसी वस्तुस्थिति में यह प्रश्न उठता है कि यदि इस रीति से श्री सिद्धसेन दिवाकर और संवत्सरप्रवर्तक विक्रमादित्य समकालीन ही नहीं थे, तो प्रस्तुत तीर्थकल्प के इतनी शंकाओं से बाधित विवरणों में कितना ऐतिहासिक तत्त्व माना जा सकता है? फिर भी उक्त कल्प के कर्ता निम्नलिखित शब्दों में पाठकों से विश्वास की माँग करते हैं कि: कुडुंगेश्वरनाभेय
देवयानल्पतेजसः । । कल्पं जल्पामि लेशेन दृष्ट्वा शासनपट्टिकाम् ।। 2 ।। अर्थात् “शासनपट्टिका को देखकर मैं महान् तेजस्वी कुडुंगेश्वर नाभेयदेव के कल्प को संक्षेप में कहूंगा ।। 2 ।।"
प्रस्तुत शब्द उस महान् जैनाचार्य श्री जिनप्रभ सूरि के हैं जिन्होंने दिल्लीश्वर सुल्तान मुहम्मद तुगलक को प्रतिबोध देकर जैनधर्म-हितैषी बनाया और उस बादशाह के हाथ से अहिंसा-धर्म के अनेक कार्य कराए ( देखिए पं. श्री लालचन्द्र गांधी, 'श्री जिनप्रभ सूरि अने सुल्तान मुहम्मद', श्री सुखसागर-ज्ञानबिन्दु नं. 35, लोहावट, ई. सन् 1939)। ऐसे महापुरुष के वचन की प्रामाणिकता में सन्देह करना उचित कैसे समझा जा सकता है? अतः यह बात अवश्य सत्य माननी पड़ेगी कि श्री जिनप्रभ सूरि जी ने उपर्युल्लिखित आशय की एक शासनपट्टिका (चाहे वह शिलालेख हो या ताम्रपत्र ) देखी थी। परन्तु उन्होंने उसके सम्बन्ध के शब्दों को स्मृति से लिखा और वृद्ध-परम्परा के मौखिक संस्मरणों के आधार पर बढ़ाया भी होगा। ऐसा मानने में इस कारण से कुछ आपत्ति नहीं है कि प्रस्तुत कल्प के अन्तिम पद्य में स्पष्टता से कहा गया है कि :
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