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श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचितः
बृहद्व्य संग्रहः। [ संस्कृतटीकया हिन्दीटीकया च समेतः ]
____श्रीब्रह्मदेवकृत-संस्कृतटीका । प्रणम्य परमात्मानं सिद्ध त्रैलोक्यवन्दितम् । स्वाभाविकचिदानन्दस्वरूपं निर्मलाव्ययम् ॥१॥ शुद्धजीवादिद्रव्याणां' देशकं च जिनेश्वरम् ।
द्रव्यसंग्रहसूत्राणां वृत्तिं वक्ष्ये समासतः ॥२॥ युग्मम् । अथ मालवदेशे धारानामनगराधिपतिराजभोजदेवाभिधानकलिकालचक्रवर्तिसम्बन्धिनः श्रीपालमहामण्डलेश्वरस्य सम्बन्धिन्याश्रमनामनगरे श्रीमुनिसुव्रततीर्थकरचैत्यालये शुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादविपरीतनारकादिदुःखभयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्नसुखसुधारसपिपासितस्य भेदाभेदरत्नत्रयभावनाप्रिय
निःसीमज्ञानादिकशक्तियुक्त जो शुद्ध प्रबुद्ध वसुकर्ममुक्त है ।
प्रणाम करता हूँ जिनेन्द्रदेव को त्रिलोक-वंद्य जो युक्तियुक्त है । भाषार्थ-त्रिलोक से बंदनीय, स्वाभाविक चैतन्य (ज्ञान) व आनन्द (सुख) मयी, कर्म रूपी मल से रहित, तथा अविनश्वर, ऐसे सिद्ध परमात्मा को और शुद्ध जीव आदि छह द्रव्यों का उपदेश देने वाले श्री जिनेन्द्र (अरिहन्त ) भगवान को नमस्कार करके मैं (ब्रह्मदेव) द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ के सूत्रों की वृत्ति (टीका) को संक्षेप से कहूंगा ॥१-२॥
वृत्त्यर्थ-मालवा देश में धारा नगरी के शासक कलिकालचक्रवर्ती भोजदेव' राजा का सम्बन्धी 'श्रीपाल' महामण्डलेश्वर (राज्य के कुछ अंश का शासक) था। उस श्रीपाल के 'आश्रम' नगर में श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थङ्कर के मन्दिर में 'सोम' सेठ के लिये 'श्रीनेमिचन्द्र
१; 'तत्वानाम्' इति पाठान्तरम् ।
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