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प्रकीर्णक । (३) (य - १) (य-२) (4-३) = य+(-१-२-३)य+ {(-१)(-२) + (-१)(-३) + (-२)(-३)य __ + (-१४-२४-३) = य-६ य+११ -६। [४] जब कि (8-- अक + कर) (अ+क) = अ + कर
और (अ+ अक+कर) (अ-क) = - करें। तो इस में स्पष्ट देख पड़ता है कि कोई दो राशियों के वर्गों के योग में उन्हीं राशिओं के गुणनफल को घटा देने वा जोड़ देने से जो बनता है उस को क्रम से उन दो राशियों के योग वा अन्तर से गण देने से उन राशिओं के घनों का योग वा अत्तर बनता है।
४० । जो राशि आप और १ छोड़ किसी दूसरे राशि से निःशेष भागा नहीं जाता उस को दृढ कहते हैं और जो भागा जाता है उस को अदृढ कहते हैं और अदृढ राशि दो वा बहुत दृढ राशिओं का गुणनफल होता है । जैसा,
प्रक, अ+क, य-२ल इत्यादि ये सब दृढ राशि हैं और २अ, य, अय, अ (अ-क) इत्यादि ये सब अदृढ राशि हैं।
४१ । इस प्रक्रम में अदृढ राशि के दृढ गुण्यगुणकरूप अवयव करने के प्रकार दिखलाते हैं । इस दृठ गुण्यगुणकरूप अवयव को खण्ड कहते हैं।
(१) किसी संयुक्तपदरूप अदृढ राशि के जो सब पद किसी एक हि केवलपद से नि:शेष भागे जाते हो तो उस केवलपदरूप खण्ड को अलग करना योगरीति से बहुत सुगम है । जैसा, (१) अक-कर = (अ-क) क । (२) अयर-३ अरेय = (अ-३य) प्रय।
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