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एक और द्वीष्टकर्म । अपर के प्रक्रम में दिखलाया है कि काल की सण संख्या भूतकाल की अर्थात पीछे के काल की द्योतक है । इस लिये जैसा अऔर क झरनों के काल का मान धन है इस कारण से जब कुण्ड जलरहित है उस काल के उपरान्त २० घड़ी तक अझरना खुला रहे वा ३० घड़ी तक क झरना खुला रहे तो वह कुण्ड नल से पूर्ण हो जाता है तैसा ग झरने के काल का मान श्ण होने से जब कुण्ड जलरहित है उस काल के पीछे ६० घड़ी तक ग झरना खुला रहे तो वह कुण्ड जल से पूर्ण रहता है। यह ६. घड़ी के क्षणत्व का अर्थ है । इस से स्पष्ट प्रकाशित होता है कि उस कुण्ड में अ और क ये दो झरने उस में पानी आने के लिये थे और इन से क्रम से २० और ३० घड़ी में वह कुण्ड जल से पूर्ण होता था। और ग यह झरना कुण्ड का पानी उस में से निकलने के लिये था और इस से वह कुण्ड भर जल ६० घड़ी में सब निकल जाताया।
२६ । अपर के प्रक्रम में उस २ प्रकार के प्रश्न का उत्तर जानने के लिये अलम २ बोनसत्र उत्पन्न करने का प्रकार दिखलाया। परंतु जिस से एकवर्णएकघातसमीकरणसम्बन्धि प्रश्नमात्र का उत्तर ज्ञात हो ऐसा भी बीजसूज उत्पत्र हो सकता है। उस में लाघव के लिये जिने प्रश्नों में अव्यक्त राशि किसी व्यक्त संख्या से गुणा वा भागा हुआ हो वा अपने हि किसी अंश से जोड़ा हुआ वा घटाया हुआ हो ऐसे प्रश्नों के उत्तर के लिये एक छोटा बीजमत्र होता है। और (एकवर्णएकघातसंबन्धि) सकल प्रश्नों के उत्तर के लिये एक बड़ा बीजसूत्र है । उस में पहिले बीजसूत्र से जो विधि उत्पत्र होता है उस को इष्टकर्म कहते हैं और दूसरे से जो विधि बनता है उस को द्वीष्टकर्म कहते हैं । इन बीजसूत्रों के विधिओं से एकवर्णएकघातसंबन्धि समग्र प्रश्नों के उत्तर अव्यक्त अक्षर की कल्पना के विना केवले व्यक्त की रीति से ज्ञात हो सकते हैं । इस लिये अनन्तर के दो प्रक्रमों में क्रम से वे दो बीतसूत्र और उन के विधि लिखते हैं।
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