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भित्रसम्बन्धि प्रकीर्णक । :: अ = और :: अ ० n और अ = । (२) जब कि अx० = ०,तो : = अ, :: ०४० = .:. : =०, और :: अ = » .:. अ. वा, : = » । और भी :: = » .:. अ.अ = » 0 ___ अर्थात् अ वा , : = इस से यह सिद्ध होता है कि इस का वा इस का मान कोई सान्त अर्थात् परिच्छिन्न राशि वा शन्य वा अनन्त भी होता है।
(३) कभीर भित्र पद में किसी एक राशि का उत्थापन करने से उस भिन्न पद का रूप ऐसा : वाळ ऐसा हो जाता है। क्योंकि उस के अंश और छेद में ऐसा एक खण्ड रहता है कि जिस का मान • वा » होवे । परन्तु : वाळ इस पर से उस भित्र पद के वास्तव मान का ज्ञान नहीं होता इस लिये अंश और छेद में जो खण्ड • के वा के समान हो उस को बैंक देने से उस भिवपद के वास्तव मान का ज्ञान होगा । और वह खण्ड अंश और छेद का अपवर्तन है इस लिये वह (४८), वा (४८) वे प्रक्रम से स्पष्ट होगा।
इसी युक्ति से भास्कराचार्य जी ने लीलावती के वविध में कहा
है कि
खगुणश्चिन्त्यश्च शेषविधा। शून्य गुणके जाते खं हारश्चेत् पुनस्तदा राशिः ॥ अविकृत एव जेय इति ।
।
य -३ य+२ स भित्र पद का मान क्या है? जब य%२
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