Book Title: Barsanupekkha
Author(s): Kundkundacharya, Vishalyasagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 11
________________ वारसाणु पेक्खा १० प्राक- प्रमेय विलासित की भाग-दौड़ में मानव - अंधा होकर तीव्र गति से पतन के गर्त में फिसल रहा है, यानि वासना - कामना की ज्वाला में झुलसता हुआ निज का घात करने में तुला है, और इसका कारण (Reason) है- आध्यात्मिकता का अभाव । आध्यात्म से शून्य जीवन महाघातक सिद्ध होता है। यदि जिन्दगी में आध्यात्म का समावेश नहीं, तो जिन्दगी महाहिंसक, निर्दयी, स्वघातकों का परिवेष धारण कर लेती है। आध्यात्म से रिक्त जिंदगी भोगी - विलासी बनकर - निजात्मा की संहारक साबित हो जाया करती है, और ऐसी जिंदगी पशु से भी बदतर (Worst) यानि नारकी तुल्य है। इन्हीं दुष्परिणामों, दुष्प्रवृत्तियों से सम्हलने हेतु एवं अंतरंग में आध्यात्म का गीत-संगीत (Music) के लिए, आज से कई वर्षों पूर्व महाश्रमण - महामनीषी, महानवेत्ता, परम-आध्यात्म योगी आचार्य भगवन् कुन्द कुन्द देव जी ने द्वितीय श्रुतस्कंध का दिव्य आलोक सारे भू मण्डल में आलोकित कर जगती के मानवों को एक अद्वितीय महानिधि परमोपकारी आध्यात्म की लेखनी शैली प्रदान की यानि, एक वह दिव्य प्रकाश दिया जिसमें निज को देख निजात्म का आनंदामृत का रसास्वादन किया जा सकात है। वास्तव में उनकी लेखनी स्वयमेव उनकी आध्यात्मचर्या की साक्षी बन संदेश वाहक रूप (Messanges) में खड़ी होकर कहने लगती है कि हे श्रमण ! यदि तू शुद्धात्मा का आनंद चाहता है, श्रमणत्व सुख की चाह है, तो समस्त सांसारिक द्वंदों से परे होकर निज में डुबकी लगा । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी विरचित वाङ्मय जहाँ एक और तत्त्व विवेचन की गहराई से आत्म-विद्या का बोध कराता है, तो वहीं आत्म-साधना के पथ में आचरण की श्रेष्ठता का निष्कर्ष भी प्रदान करता है, यही कारण है कि उनके द्वारा लिपिबद्ध ग्रंथ अंतरंग को खोलकर मोक्षमार्ग को प्रशस्त करते हैं। वह एक ऐसे आचार्य हुए, जिन्होने साधना के पथ में शैथिल्यता को जरा भी नहीं स्वीकारा । निर्ग्रन्थता ही मुक्तिमार्ग है त्रि सिज्झ वत्थधरो, जिणसासणे जड़ वि होइ तित्थयरो ।

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