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बारसाणु वैवस्वा
अन्वयार्थ:
मुनि धर्म से निर्वाण की प्राप्ति
साजय धम्मं चत्ता जदिधमे जो दु षट्टर जीबी । ૐ सो णय वज्जदि मोक्खं धम्मं इदि चिंतए णिस्यं ॥ ८१ ॥
सावय धम्मं चत्ता
जो जीवो
जदि धम्मे दु ट्टए
सो मोक्खं णय वज्जदि इदि णिचं चिंतए
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श्रावक धर्म को त्यागकर
जो जीव
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यति अर्थात् मुनि धर्म में वर्तन करता है
धारण करता है
वह मोक्ष को नहीं छो ड़ता
ऐसा हमेशा चिंतन करो ॥८१॥
भावार्थ जो भव्य श्रावक धर्म को त्याग कर मुनि धर्म को अंगीकार कर उस रूप अपनी परिचर्या करता है वह अवश्य ही मुक्ति श्री को प्राप्त करता है, क्योंकि बिना सच्चे मुनि हुये मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है ऐसा निरंतर चिंतन करना चाहिए।
• णावि सिज्झइ तत्थधरो, जिणसासणे जड़ वि होइ तित्थयरो । गो विमोग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ||
(अष्टपाहुड)
अर्थ- जिनशासन में वस्त्रधारी की मुक्ति संभव नहीं, चाहे तीर्थंकर भी क्यों न हो बिना दिगम्बरी (निर्ग्रथ) दीक्षा धारण किये मोक्ष नहीं हो सकता. नग्नता (निर्ग्रथता) ही मोक्ष मार्ग है शेष सभी उन्मार्ग है।