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वारसाण रोवस्था
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अनुप्रेक्षा माहात्म्य
किं पलविएण बहुणा जे सिद्धाणरवरा गये कालें। सिज्झिहदि जे भविया तं जाणह तस्स माहप्पं ॥१०॥
अन्वयार्थ:-.
किं बहुणा पलबिएण
गये काले जे णरवरा सिद्धा
विधा सिझिहाँद तं तस्स महाप्पं
- बहुत कहने से क्या संक्षेप में इतना ही
समझो कि - भूतकाल में जो भी सिद्ध हुये हैं और - और भविष्य में भी जो भव्य सिद्ध होगें। - वह सब इन बारह अनुप्रेक्षाओं का ही
महात्म्य हैं। - ऐसा जानो ॥९॥
जाणह
भावार्थ- बहुत कहने से क्या प्रयोजन संक्षेप में इतना ही समझो कि भूतकाल में जो भी आज तक सिद्ध हुए है और भविष्य काल में भी जो भव्य सिद्ध होंगे | वह सब बारह अनुप्रेक्षाओं का ही महात्म्य है । ऐसा जानो।
• विध्याति कषायाग्निर्बिगलति रागो विलीयते ध्वान्तम् । उन्मिषति बोधदीपो हदि पुंसां भावनाभ्यासात् ।।
(ज्ञानार्णव ७) अर्थ- इन द्वादश भावनाओं के निरंतर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदय में कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा परद्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूप
अंधकार का विलय होकर ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश होता है।