Book Title: Barsanupekkha
Author(s): Kundkundacharya, Vishalyasagar
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुरा विरित। बारसाणुपेक्रवा S HapMRH . हा साचार्य श्री बाजी HIMAR अनुवादक आचार्य विनाग सागर संयोजन: मुनि विशल्य सागर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसा विरबा श्री वीतरागाय नमः प्रस्तावना आज से कुछ समय पूर्व तक अधिकांत: भारतीय पाश्चात्य विद्वान भारतीय संस्कृति धर्म दर्शन एवं साहित्य को मूल वेदों में देखने के अभ्यस्त थे किन्तु मोहन जोदड़ों हड़प्पा से प्राप्त सामग्री आदि साक्ष्यों के अध्ययन के गद चिन्तकों के चिन्तवन की दिशा ही बदल गई अब यह पूर्ण प्रमाणित हो चुका है कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति से पूर्ण प्रथम एवं प्राचीन है। श्रमण संस्कति भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से प्रभायमान है साहित्यिक परातात्विक साक्ष्यों भाषा वैज्ञानिक एवं शिला लेखीय आदि अन्वेषणों के आधार पर अनेक विद्वान अब यह मानने लगे हैं कि आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में जो संस्कृति थी वह श्रमण संस्कृति या आर्हत् संस्कृति होनी चाहिए। श्रमण संस्कृति का भारत देश में ही नहीं विश्व में अपनी त्याग तपस्या श्रम: आध्यात्मिक अहिंसा आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रमण संस्कृति अनादि काल से अपने आप में प्रवाहित हो रही है वर्तमान अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभ देव द्वारा प्रवाहित हुयी थी ऋषभ देव का वर्णन श्रमण एवं वैदिक इन दोनों ही संस्कृतियों में बड़े आदर से किया गया है जिन्होंने इस युग में असि, मसि कृषि विद्या वाणिज्य शिल्प इन षट कर्मों का प्रवर्तन किया था भगवान आदिनाथ के ही ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर इस देश का नाम भारत बर्ष पड़ा। इस प्रकार ऋषभ देव से लेकर चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा में अंतिम तीर्थकर भगवान वर्द्धमान महावीर स्वामी जिन्होंने प्राणी मात्र को जीओ और जीने दो का संदेश दिया। आज इतिहास को पूर्ण न जानने वाले चन्द व्यक्ति श्रमण जैन संस्कृति को भगवान महावीर स्वामी से प्रारंभ मानते हैं यह उनका भ्रम है। महा श्रमण वर्द्धमान तीर्थंकर के पावन तीर्थ में श्रमण संस्कृति के गौरव पुन्जतत्त्व ज्ञानी महामनीषी बहु दिगम्बराचार्यों ने प्रायः सभी प्राचीन भारत भाषाओं एवं सभी विद्याओं में अपने श्रेष्ठ सद साहित्य के माध्यम से भारत साहित्य और चिन्तन परम्परा में भी वृद्धि की Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રિરાષ્ટ્ર ધારવા आचार्य कुन्द- कुन्द स्वामी :- तीर्थंकर भगवान महावीर गौतम स्वामी की उत्तरवर्ती आचार्य परम्परा में जिनका नाम गौरव के साथ लिया जाता है जिनके व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व ने जन जन को अपनी ओर आकर्षित कर लिया अध्यात्म की मूर्ति जिनवाणी में मंत्र शक्ति छुपी हुई है जो एक बार आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी की वाणी का पान कर लेता वह कुन्द कुन्द मय हो जाता है आचार्य श्री का साहित्य सिंहनी का दुग्ध है स्वर्ण पात्र में ही धारण किया जा सकता है। आचार्य श्री के साहित्य को जानने के पूर्व नय का ज्ञान होना आवश्यक है जिसे आलाप पद्धति का ज्ञान नहीं है उसे कुन्द कुन्द भगवान की देशना नहीं सुननी चाहिए अध्यात्म ग्रन्थों के अध्ययन के पूर्व सिद्धांत ग्रन्थों का अध्ययन पूर्ण आवश्यक है। आचार्य श्री ने उभय नय का कथन किया है निश्चय नय व्यवहार नय दोनों नयों को जानने वाला ही जिनेन्द्र वाणी को समझ सकता है। किसी एक नय को मात्र स्वीकार करने वाला कभी भी जिन देशना सुनने का पात्र नहीं है। न बह वक्ता कहलाने का पात्र है। आचार्य श्री अमृत चन्द्र स्वामी ने ग्रन्थराज पुरूषार्थ सिद्ध उपाय में कहा भी है व्यवहार निश्चयो य: प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायः स एव फलमविकले शिष्यः ॥८॥ अर्थात् :- जो वास्तविक रूप से व्यवहार नय और निश्चय नय दोनों को जानकर मध्यस्थ हो जाता है यानी कि किसी एक नय का सर्वथा एकांती न बनकर अपेक्षा दृष्टि से दोनों नयों को स्वीकार करता है वह ही उपदेश सुनने वाला (सुनाने वाला) उपदेश के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है। मात्र निश्चय नय को ही स्वीकार करता है वह मिथ्या दृष्टि है उभय नय का कथन करने वाला ही वास्तविक ज्ञानी है सम्यक्दृष्टि है निरपेक्ष कथन मिथ्या होता है। आचार्य भगवन समन्त भद्र स्वामी ने देवागम स्त्रोत्र में कहा है निरपेक्षा नया मिथ्यां जो नय अपेक्षा से रहित होता है वह मिथ्या नया कुनय है सुनय नहीं जैनागम सुनय को स्वीकार करता है कुनय को नहीं। जब भी कथन किया जाय पात्र देखकर ही कथन होना चाहिए। आचार्य श्री कुन्द कुन्द स्वामी ने स्वयं अपने ग्रन्थ राज समय पाहुण में कथन किया है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ২iv যু जह णवि सक्कमणज्जो अणज्ज भासं विणा दु गाहेर्नु । तह ववहारेण विणा परमत्धुवदेसण मसक्कं ।।८।। समयसार अर्थात:- जिस प्रकार किसी अनार्य (अनाड़ी) पुरूष को उसकी भाषा में बोले बिना नहीं समझाया जा सकता है उसी प्रकार परमार्थ का उपदेश भी व्यवहार के बिना नहीं हो सकता। अर्थात परमार्थ को समझाने के लिए व्यवहार नय का अवलंबन किया जाता है। महान आचार्यों की परम्परा में दो हजार वर्ष पूर्व युग प्रधान आचार्य कुन्द-कुन्द स्वामी ऐसे प्रखर प्रभा पुञ्ज के समान श्रेष्ठ आचार्य हुये जिनके महान आध्यात्मिक चिन्तन से सम्पूर्ण भारत मनीषा प्रभावित हुयी। यही कारण रहा कि इसके पश्चात होने वाले आचार्यों ने अपने आप को उनकी परम्पर। का आचार्य मानकर गौरव माना उनको विशुद्धचर्या तथा ज्ञान गरिमा को श्रेष्ठ स्वीकार कर मुक्त कंठ से गुणगान किया। मंगलं भगवान्वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्द कुन्दार्यो जैन धर्मोस्तु मंगलम् ।। अर्थात् :- तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी मंगल स्वरूप है उनके प्रथम गणधर गौतम स्वामी मंगलात्मक है आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी जैसे समर्थ आचार्यों की आचार्य परम्परा मंगलमय है। तथा प्राणी मात्र का कल्याण करने वाले जैन धर्म सभी के लिए मंगलकारक है। शिला लेखों के अनुसार इनका जन्म स्थान कोणु कुन्दे प्रचलित नाम कोंड (कुन्द कुन्द पुरम) तहसील है जो कि आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में कौण्ड कुन्दपुर अपरनाम कुरूमरई माना जाता है इनका जन्म शार्वरी नाम संवतसर माघ शुक्ला ५ ईसा पूर्व १०८ (वी.सी.) में हुआ था। इन्होंने ११ वर्ष की अल्पायु में ही श्रमण दीक्षा ले ली थी तथा ३३ वर्ष तक मुनिपद पर रहकर ज्ञान और चारित्र की सतत साधना की ४४ वर्ष की आयु (ईसा पूर्व ६४) में चतुर्विध संघ ने इन्हें आचार्य पर पर प्रतिष्ठित किया। ५१ वर्ष १० माह १५ दिन तक इन्होंने आचार्य पद को सुशोभित किया। इस प्रकार इन्होंने कुल ९५ वर्ष १० माह १५ दिन की दीर्घायु पायी और ईसा पूर्व १२ में समाधिमरण पूर्वक मृत्यु पाकर स्वर्गारोहण किया। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसालु पेक्रवा ४ ग्रन्थ :- आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी के ग्रन्थ पाहुण कहे जाते हैं। पाहुण अर्थात् प्राभृत जिसका अर्थ भेंट हैं आचार्य जिनसेन महाराज ने की तात्पर्यवृत्ति में कहा है जैसे देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति राज्य का दर्शन के लिए कोई सार भूत वस्तु राजा को देता है तो उसे प्राभृत भेंट कहते है। उसी प्रकार परमात्मा के आराधक पुरूष के लिए निर्दोष परमात्मा रूपी राजा के दर्शन कराने के लिए यह शास्त्र भी प्राभृत भेंट हैं। वर्तमान आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कृत पंचास्तिकाय, समयपाहुण, पवयणसार अटठपाहुण (दसणपाहुण, चरित्र पाहुण, सुतपाहुण, बोध पाहुण, भाव पाहुण, मोक्ख पाहुण, शील पाहुण तथा लिंग पाहुण) बारसाणु पेक्खा भवित संग्रहों जैसे महान ग्रन्थों की रचना की इनके अतिरिक्त रयणसार को भी कुछ विद्वान उनकी कृति मानते हैं। तमिल वेद के रूप में सुविख्यात "तिरुक्कुर ( कुरलकाव्य) नामक रीतिग्रन्थ भी इनकी कृति माना जाता है। ऐसी मानता है कि आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी ने चौरासी पाहुण ग्रन्थों की रचना की थी। उपलब्ध पाहुणों के नामों के अतिरिक्त अब इन चौरासी में से कुछ पाहुणों के नामों के उल्लेख भी मिलते है। प्राकृत एवं जैन साहित्य के सूत्रासिद्ध मनीषी डा. ए. एन. उपाध्ये ने निम्न लिखित तैंतालीस पाहुणों की सूचना तैयार कर प्रस्तुत की है। (१) आचार पाहुण (२) आलाप पाहुण (३) अंगसार पाहुण (४) आराहणा सारपाहुण (५) बंध सार पाहुण (६) बुद्धि या बोध पाहुण (७) चरण पाहुण (८) चूलिया पाहुण (१९) चूर्णि पाहुण (१०) दिव्य पाहुण (११) द्रव्य सार पाहुण (१२) दृष्टि पाहुण (१३) इव्यत्र पाहुण (१४) जीव पाहुण (१५) जाणिसार पाहुण (१६) कर्म विपाक पाहुण (१७) कर्म पाहुण (१८) क्रिया सार पाहुण (१९) क्षयण सार या क्षयण पाहुण ( २० ) लब्धि सार पाहुण (२१) लोय पाहुण (२२) नय पाहुण (२३) नित्य पाहुण (२४) नोकम्प पाहुण (२५) पंच वर्ग पाहुण (२६) पयढ पाहुण (२७) पय पाहुण ( २८ ) प्रकृति पाहुण (२१) प्रमाण पाहुण (३०) सलमी पाहूण (३१) संणडण पाहुण (३२) समवाय पाहुण (३३) षटदर्शन पाहुण (३४) सिद्धान्त पाहुण (३५) सिक्खा पाहूण (शिक्षा) पाहुण (३६) स्थान पाहुण (३७) तत्त्वसार पाहुण (३८) तोप (लोय) पाहुण (३९) ओघट पाहुण (४०) उत्पाद पाहुण ( ४१ ) विद्या पाहुण (४२) वस्तु पाहुण (४३) विध्य या विध्य पाहुण । संयम प्रकाश नामक ग्रन्थ में उपयुक्त पाहुडों के अतिरिक्त नाम कम्म पाहुण, योग सार पाहुण, नित्ताय पाहुण, उघोत पाहुण, सिखा पाहुण तथ्य ऐयन्त पाहुण नाम प्राप्त होते हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु वरना इतना विपुल साहित्य का सृजन आचार्य की बहुमुखी तीक्षण प्रतिभा ज्ञान कोष का ही फल है। पर दुर्भाग्य है आज हमारे पा उपर्युक्त ग्रन्थ अनुपलब्ध है। इसका कारण या हमारी समाज की साहित्य के प्रति उदास वृत्ति या फिर विरोधी कारणों से क्षति हुयी साहित्य दर्शन के प्राण करते हैं। आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी ने दिगम्बर वीतराग मार्ग के बहुश्रुत प्रदान किया यह हम सभी पर आचार्य श्री की असीम कृपा दृष्टि रही है। अभी क्षण ज्ञानोपयोगी आचार्य श्री कुन्द कुन्द स्वामी ने अनेक पाहुण ग्रन्थों के साथ अनुप्रेक्षा ग्रन्थ भी लिखा बारसाणु पेक्खा ग्रन्थ आचार्य श्री की एक अनुपम कृति है। जिसमें बारह भावनाओं का बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है। वैराग्य को जन्म देने वाली ये बारह भावनायें हैं। जिन्हें आगम में माँ की उपमा दी है जैसे मॉ पुत्र को जन्म देती है। एवं रक्षा करती है उसी प्रकार मुमुक्षु को वैराग्य वृद्धि का कारण एवं वैरागी के वैराग्य की रक्षा कवच ये अनुप्रेक्षायें हैं। तत्त्वार्थवार्तिक जी में आचार्य श्री भट्ट अंकलक देव ने अनुपेक्षा की परिभाषा बताते हुए कहा शरीरादीनां स्वभावानु चिन्तन पेक्षा वेदितव्याः भावादि साधनः आकार: अर्थात् :- शरीर आदि के स्वभाव का बार बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है अनुप्रपूर्व धातु से भाव साधन से आकर होने से अनुप्रेक्षा शब्द बनता है। ये अनुपेक्षा अनुप्रेक्षायें ही प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण आलोचना तथा समाधि है अत: इनका हमेशा चिन्तन करना चाहिए। बारस अणुपेक्खा पच्चक्खाणं तहेव पडिकमणं । ओलाघणं समाहि तम्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥८७|| (बारसाणुपेक्खा) आचार्य श्री ने अनुपेक्षाओं का वर्णन करते हुए कहा हैमोक्ख गया जे पुरिसा अणाइकालेण बारअणु पेक्खं । परिभाविऊग सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥८९॥ (बारसाणु पेक्खा) अर्थ - अनादि काल से आज तक जितने भी पुरुष मोक्ष गये हैं वे सब इन बारह अनुप्रेक्षाओं को अच्छी तरह से या करके ही गये हैं। उन सभी सिद्धों को विधि पूर्वक बारम्बार नमस्कार करता हूँ। इस ग्रन्थ में आचार्य श्री बारह भावना का साल सुबोध शैली में वर्णन किया है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारसाण पेपरवा अद्भुव मसरण मेगत्त मण्णसंसार लोग मसुचित्तं। आसव संवर णिज्जर धम्मं बेहिंच चिंतेज्जो ॥२॥ अर्थ :- अध्रुव (अनित्य) अशरण, एकत्व, संसार, लोक, आशुचित्व, आम्रव, संबर, निर्जरा, धर्म और बोधि इनका चिंतन करो आचार्य श्री उमा स्वामी महाराज ने इन बारह अनुपेक्षाओं का क्रम तत्वार्थ सूत्र में इस प्रकार दिया है। अनित्याशरण संसार भावान्यः प्रामुख्या नट मंबा सिमरस लोक अधि दुलर्भ धर्म स्याख्यातत्त्वानुचिन्तन मनु प्रेक्षाः ॥८१९|| तत्त्वार्थ सूत्र अर्थ :- अनित्य, अशरण संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर निर्जरा, लोक बोधि दुर्लभ, और धर्मस्वाख्यातत्व का बार बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षायें हैं। आचार्य श्री अमृत चन्द्र महाराज ने परुषार्थ सिद्ध उपाय ग्रन्थ जी में आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी आचार्य श्री उमा स्वामी महाराज के क्रम से प्रथक क्रम में रखा है। आचार्य श्री वट्टकेर महाराज द्वारा विराचित मूलाचार जी में बारसाणु पेक्खा के अनुसार ही क्रम है। अनुप्रेक्षाओं का आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी आचार्य श्री वट्टकेर स्वामी आचार्य श्री अमृत चन्द्र स्वामी के नाम समानरूप से दिये हैं आचार्य उमा स्वामी ने अध्रुव के स्थान पर अनित्य नाम रखा है प्रथम अनुपेक्षा का आचार्य अमृत चन्द्र स्वामी ने संसार भावना को जन्म नाम से कहा है। पुरुषार्थ सिद्ध उपाय में निम्न कारिका में अनुप्रेक्षा की है। अध्रुवमशरण मेकत्व मन्यता ऽशौच मासवो जन्म। लोकवृष बोधि संवर निर्जराः सतत मनुपेक्ष्याः ॥२०५।। पु. उ. (१) अनित्य भावनाः- सामग्री, इन्द्रियां, रूप, यौवन, जीवन बल तेज घर शासन आसन वर्तन आदि सब अनित्य है। ऐसा चिंतवन करें प्रथम अध्रुव अनुप्रेक्षा हैं। (२) अशरण भावना:- घोड़ा, हाथी, रथ, मनुष्य, बल वाहन, मन, औषधि, विद्या, माया नीति और बन्धु वर्ग ये मृत्यु के भय से रक्षक नहीं है। ऐसा चितवन करना अशरण अनुप्रेक्षा है। (३) एकत्व भावना:- अकेला ही यह जीव कर्म करता है। एकाकी ही दीर्घ संसार में भ्रमण करता है। अकेला ही जन्म लेता है। अकेला ही मरता है। इस प्रकार से एकल का चिंतन करता एकल अनुप्रेक्षा है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु वेदस्ता હ (४) अन्यत्व भावना :- यह शरीर आदि भी अन्य है। पुनः जो बाह्रा द्रव्य हैं। वे तो अन्य ही हैं। आत्म ज्ञान दर्शन स्वरूप है। इस प्रकार अन्यत्व का चिंतन अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। (५) संसार भावना:- यह संसारी जीव जिनमार्ग को न जानता हुआ प्रचुर जन्म मरण युक्त बुढ़ापा भय से युक्त द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव, भत्र रूप पांच प्रकार के संसार दीर्घकाल तक भ्रमण करता है। ऐसा चिंतवन करना संसार अनुप्रेक्षा है। (६) लोक भावना:- अधोलोक वैत्रासन के समान है। मध्य लोक झल्लरी के समान है। और ऊर्ध्वलोक मृदंग के समान है। एवं चौदह राजू प्रमाण इस लोक की ऊंचाई हैं। इस लोक में जीव अपने कर्मों द्वारा निर्मित सुख, दुख का अनुभव करते हैं। भयानक अनन्त मय समुद्र में पुनः पुनः जन्म मरण करते हैं। ऐसा चिंतवन करना लोकानुप्रेक्षा है। (७) अशुभ अनुप्रेक्षा:- (अशुचि भावना ) मॉस अस्थि कफ वसा रुधिर चर्म पित्त ऑत मूत्र इन अपवित्र पदार्थों की झोपड़ी रूप बहुत प्रकार के दुख और रोगों के स्थान स्वरूप इस शरीर को अशुभ ही जानो ऐसा चिंतवन करना अशुभ अशुचि अनुप्रेक्षा है। (८) आस्रव भावना:- हिंसा आदि आस्रव द्वार से पाप का आना होता है। उससे निश्चित ही विनाश होता है। जैसे कि आम्रव से सहित नौका समुद्र में डूब जाती है। इस प्रकार बहु प्रकार का कर्म दुष्ट है जो कि ज्ञानावरण आदि से यह आठ प्रकार का है। तथा दुख रूप है। फलवाला है ऐसा चितवन करना आम्रव अनुप्रेक्षा है। , (९) संवर भावना:- मिथ्यात्व अविरति कषाय और योग इनसे आत्मा में जो कर्म आते हैं। वे क्रमशः सम्यग्दर्शन, विरति, इन्द्रिय निग्रह और योग निरोध इन कारणों से नहीं आते हैं। रुक जाते हैं। इस प्रकार कर्मों का आना आस्रव और कर्मों का रुकना संवर हैं। (१०) निर्जरा भावना:- जिनका आम्रव रुक गया है जो तपश्चर्या से युक्त होते हैं उनकी निर्जरा होती है। जिनके सर्वकर्म निजीर्ण हो चुके है। ऐसा जीव जन्म मरण के बंधन से छूटकर अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है। इस कारण निर्जरा अनुप्रेक्षा का चिंतवन करना चाहिए। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाराणु विवरखा (११) धर्मानुप्रेक्षा:- संसार मय विषम दुर्ग इस भव मन में भ्रमण करते हुए मैने बड़ी मुश्किल से जिनवर कथित प्रधान धर्म प्राप्त किया है। इस प्रकार चिंतवन करना धर्मानुप्रक्षा है। . (१२) बोधि दुर्लभ भावना:- अनन्त संसार में जीवों को मनुष्य पर्याय दुर्लभ है। जैसे लवण समुद्र में युग अर्थात् जुवां और समिला अर्थात् सैल का संयोग दुर्लभ है। उत्तम देश कुल में जन्म, रूप, आयु, आरोग्य, शक्ति विनय धर्मश्रवण ग्रहण बुद्धि और धारणा ये भी इस लोक में दुर्लभ हैं। ऐसी भावना बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा हैं। इस प्रकार ये बारह अनुप्रेक्षायें वैराग्य बुद्धि के लिए वायु के तुल्य हैं। जैसे जलती हुयी अग्नि की वृद्धि में वायु कारण होती है। आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी के प्राप्त ग्रन्थों में यह प्रथम ग्रन्थ हैं। जिसमें आचार्य श्री ने अपना नाम उल्लेखित किया है। इदि णिच्छयववहारं जं भणियं कुंद मुणिणाहे । जो भावइ सुद्धमणो सा पावइ परमणिठवाणं ॥९९॥ वा.अनु. अर्थात् इस प्रकार से मुनियों के नाथ/ नायक आचार्य श्री कुंद-कुंद ने निश्चय और व्यवहार नव से बारह अनुप्रेक्षाओं को कहा है उसे जो शुद्ध मन से भाता है चिंतन करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त करता है। इस प्रकार महामनीषी आचार्य महाराज ने वारसाणु पेक्खा ग्रन्थ का का सृजन कर भारतीय साहित्य को समृद्धशाली बनाया छतरपुर में ग्रीष्म वाचना के समय आचार्य श्री हम लोगों को वारसाणु पेक्खा ग्रन्थ का स्वाध्याय कर रहे थे तभी मेरी भावना बन चुकी थी कि ऐसे महान ग्रन्थ की सरल शब्दार्थ भावार्ध सहित प्रकाशन होना चाहिए। इस भावना को लेकर दि. जैन तीर्थ स्थली करगुवा (झाँसी) में चातुर्मास के समय मैने आचार्य श्री के चरणों में पत्र के माध्यम से प्रार्थना प्रेक्षित की कि भिण्ड वर्षा योग में आप ग्रन्थ का सरल भाषा में अनुवाद करने की कृपा करें। आचार्य श्री ने प्रार्थना स्वीकार कर हम लोगों पर असीम कृपा की। यह उनकी करुणा हम लोगों के प्रति है। साथ ही मुझे आज्ञा दी कि विशुद्ध सागर प्रस्तावना लिखें ऐसे महान ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखना बहुत बड़ी बात है। पर आचार्य श्री की कृपा से लिखना संभव हो सका उसमें जो कमी है वो मेरी है जितनी भी अच्छाइयां है। वे सब गुरू देव की है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसागकरवा वीर निर्वाण संवत २५२६ ऊं नम: सिद्धेभ्या: मुनि विशुद्ध सागर पोषशुक्ल पूर्णिमा (शीत वाचना) चिरगोंव (झाँसी) उ.प्र. सन्दर्भित ग्रन्थ सूचि १. अष्ट पाहुड़ जी भूमिका ले. डा. फूलचन्द्र जैन प्रेमी प्रकाश-भारतीय अनेकान्त विद्वत परिषद सोनागिरी २. समयसार जी - आचार्य श्री कुन्द कुन्द सागर विरचित ३, तत्त्वार्थ वार्तिक - भट्ट आचार्य श्री अकलंक देव विरचित ४. तत्त्वार्थ सूत्र जी - श्री उमा स्वामी महाराज विरचित ५. पुरुषार्थ सिद्धि उपाय - आचार्य श्री अमृत चन्द सूरी विरचित ६. मूलाचार जी - आचार्य श्री बट्टकेर स्वामी विरचित ७. बारसाणु पेक्खा - आचार्य श्री कुंद कुंद स्वामी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु पेक्खा १० प्राक- प्रमेय विलासित की भाग-दौड़ में मानव - अंधा होकर तीव्र गति से पतन के गर्त में फिसल रहा है, यानि वासना - कामना की ज्वाला में झुलसता हुआ निज का घात करने में तुला है, और इसका कारण (Reason) है- आध्यात्मिकता का अभाव । आध्यात्म से शून्य जीवन महाघातक सिद्ध होता है। यदि जिन्दगी में आध्यात्म का समावेश नहीं, तो जिन्दगी महाहिंसक, निर्दयी, स्वघातकों का परिवेष धारण कर लेती है। आध्यात्म से रिक्त जिंदगी भोगी - विलासी बनकर - निजात्मा की संहारक साबित हो जाया करती है, और ऐसी जिंदगी पशु से भी बदतर (Worst) यानि नारकी तुल्य है। इन्हीं दुष्परिणामों, दुष्प्रवृत्तियों से सम्हलने हेतु एवं अंतरंग में आध्यात्म का गीत-संगीत (Music) के लिए, आज से कई वर्षों पूर्व महाश्रमण - महामनीषी, महानवेत्ता, परम-आध्यात्म योगी आचार्य भगवन् कुन्द कुन्द देव जी ने द्वितीय श्रुतस्कंध का दिव्य आलोक सारे भू मण्डल में आलोकित कर जगती के मानवों को एक अद्वितीय महानिधि परमोपकारी आध्यात्म की लेखनी शैली प्रदान की यानि, एक वह दिव्य प्रकाश दिया जिसमें निज को देख निजात्म का आनंदामृत का रसास्वादन किया जा सकात है। वास्तव में उनकी लेखनी स्वयमेव उनकी आध्यात्मचर्या की साक्षी बन संदेश वाहक रूप (Messanges) में खड़ी होकर कहने लगती है कि हे श्रमण ! यदि तू शुद्धात्मा का आनंद चाहता है, श्रमणत्व सुख की चाह है, तो समस्त सांसारिक द्वंदों से परे होकर निज में डुबकी लगा । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी विरचित वाङ्मय जहाँ एक और तत्त्व विवेचन की गहराई से आत्म-विद्या का बोध कराता है, तो वहीं आत्म-साधना के पथ में आचरण की श्रेष्ठता का निष्कर्ष भी प्रदान करता है, यही कारण है कि उनके द्वारा लिपिबद्ध ग्रंथ अंतरंग को खोलकर मोक्षमार्ग को प्रशस्त करते हैं। वह एक ऐसे आचार्य हुए, जिन्होने साधना के पथ में शैथिल्यता को जरा भी नहीं स्वीकारा । निर्ग्रन्थता ही मुक्तिमार्ग है त्रि सिज्झ वत्थधरो, जिणसासणे जड़ वि होइ तित्थयरो । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पेतरवा णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥ अष्टपाहुड || यह उद्घोष कर उन्होनें विभिन्न मत-मतान्तरों का सुयुक्तियों से युक्त खंडन किया एवं तीर्थेश भगवंतों की परम वीतरागी परंपरा को कायम रख, सर्वजन हिताय महिमा - - मण्डित किया । धन्य हैं ऐसे प्रबद्ध चेतना के धनी आचार्य प्रवर जिनके द्वारा सृजित साहित्य, मुक्ति पथिकों के आलोकदायी दीपस्तंभ हैं । समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड़, नियमसार आदि, जैसे महान ग्रंथ शुद्धात्म-तत्त्व में अवगाहन की और प्रबल प्रेरणास्पद सिद्ध होते हैं वहीं बारसाणु पेक्खा जैसा अनुपम ग्रंथ आध्यात्म रस को पाने हेतु जैराग्य की शिक्षा देता है । ११ शुद्धात्मानुभूति का रसास्वादन करने के लिऐ जिस परमध्यान की अनिवार्यता बतलाई गई है, उसी ध्यान को पाने के लिए भावना भाना आति आवश्यक है। इसी भावना का नाम अनुपेक्षा है, जो कि बारह है। बारसाणुपेक्खा ग्रंथ इन्हीं बारह अनुपेक्षाओं को प्रतिपादन करने वाला है । अनुपेक्षा यानि अनु+प्रेक्षा, पेक्षा अर्थात ध्यान अनु यानि समीपस्थ (निकट) | जो ध्यान के निकट ले जाए वह है अनुप्रेक्षा । - - विध्याति कषायाग्निर्विगलतिरागो विलीयते ध्वान्तम् । उन्मिषति बोधदीयो हृदिपुंसां भावनाभूयसात् ॥ सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपादाचार्य ने कहा है- शरीरादीनां स्वाभावनुचिन्तन अनुप्रेक्षा अर्थात् शरीरादिक के स्वभाव का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। संवेग-वैराग्य को उत्पन्न करने वाली एवं जीवन के रहस्यों को उद्घाटित करने वाली ये बारह अनुपेक्षाऐं वैरागी के लिए जननी तुल्य है भविय-जणाणंद-जणणीओ (का. अनु. ) शुभचंदाचार्य ने ज्ञानार्णव ग्रंथ में कहा भी है इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से मनुष्यों के हृदय में कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है, तथा परद्रव्यों के प्रति रागभाव गल जाता है। और अज्ञानरूपी अंधकार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारसाणु पवस्वा का विलय होकर ज्ञानरूपी दीप का प्रकाश होता है । कहा भी है। द्रादपि सदा चिन्त्या अनुपेक्षा महात्मभिः । तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम || महात्मा पुरुषों को निरन्तर बारह अनुपेक्षाओं का चिन्तन करना चाहिए क्योंकिये कर्म क्षय में कारण है। अत: हे मानव इन अनुषेक्षाओं के चिन्तन से चैतन्य को उपलब्ध कर । चैतन्यामृत की परमोपलब्धि ही अनुपेक्षा का परम-सार है। इनको जीवन में श्रृंगारित करना ही आचार्य भगवन कुन्दकुन्द देव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है । एवं आध्यात्म योगी, संतशिरोमणि प.पू. आचार्य गुरुवर्य श्री विरागसागर जी महाराज जिन्होंने मूल गाथाओं का सहज सुबोध शैली में अनुवाद कर प्रणेता की आध्यात्म लेखनी को जनमानस में आलोकित करने का मार्ग प्रशस्त किया एवं अहर्निश संलग्न है ऐसे धरा के गौरव पुंज, मेरे जीवन प्रदाता, रत्नत्रय दाता महायोगी के श्री चारणविंद में त्रय भक्ति पूर्वक नमन-| मुनि विशल्य सागर वर्णी भवन मोराजी सागर (म.प्र.) पावस योग - 2000 वीर निर्वाण सं. 2526 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पक्रता जरा सोच प्रस्तुति - मुनि विशल्य सागर जी चाहता हूँ पुष्प यह , गुलदान का मेरे, न मुरझाये । न कुमलाये कभी देता रहे, सौरभ सदा अक्षुण्ण इसका, रूप हो । पर यह कहां संभव, कि जो है आज वह कल को कहाँ ?, उत्पत्ति यदि अवसान निश्चित ।, आदि है, तो अंत भी है ।, अर्क का उदय तो अस्त भी है ।, जरा सोच । उगते / ढलते सूरज की लाली खिलते / मुरझाते जलज की कहानी कह रहे है। ये सभी रूप/लावण्य जीवन/यौवन, मान सम्मान मकान/दुकान, शासन/आसन राशन/वासन, यान/चाहन तन/धन, स्वजन/परिजन सत्ता/छल्ता. चित्त/वित्त भोग/उपभोग, संयोग/नियोग है इनका, नियामक वियोग काल का प्रवाह में वह रहा है और बहता बहता कह रहा है। यह जीवन पल-पल इसी प्रवाह में बह रहा, बहता जा रहा है। और चलता हुआ कहता जा रहा है यहाँ पर कोई भी . चिर....ध्रुव - थिर.....। नरहा न रहेगा। जरा सोच Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु वेनखा जरा संभल प्रस्तुति - हुआ प्रभात, जब आयी लालिमा पूर्व दिशा में खिले कमल सरोवर में बिहरा विहंगम रख कर रहे नग-जग में ढली लालिमा हुआ मध्यान्ह तडग तपन पड़ी झुलसे तभी पथ पथ में बीते क्षण कुछ पल मुर्झा गया दिनकर हुई शाम, गया सूर्य अस्ता चल हो गये पक्षी मौन साधना रत ये है तेरी हालत उदित होना अस्ताचल को चले जाना यह प्रकृति का धर्म है इसे न ही कोई टाल सका तु क्या टाल पायेगा संभल अपने में तू नहीं तो मौत तेरे खड़ी बगल में १४ मुनि विशुद्ध सागर जी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारसाण पक्वा समर्पण परम पूज्य सन्मार्ग दिवाकर आचार्य श्री 108 विमल सागर जी महाराज के शिष्योत्तम श्रमणोत्तम सर्वाधिक-दीक्षा प्रदाता महाप्रज्ञ-अज्ञान तिमिर मार्तण्ड वात्सल्य पुंज-समता कुंज सौम्य मूरत-मोक्षमार्ग के वीतरागी पाथिक संयम साधक व प्रेरक श्रमण/आर्ष संस्कृति रक्षक बाल अनगार/आखण्ड बाल ब्रम्हचारी आगम सूत्र चर्चविद् वाणी अनुरूप चर्या के प्रबल पालक यथा नाम तथा गुणधारी अनुशासक / श्रमण संस्कृति के देदीप्यमान नक्षत्र करुणामूर्ति गुरुदेव परम पूज्य आचार्य श्री 108 विरागसागर जी महाराज के नवम आचार्य पदाराहेण दिवस के मंगल अवसर पर आपके श्री कर-कमलों में ग्रंथराज | सादर समर्पित • मुनि विशल्य सागर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु पैवस्वा श्री वीतरागाय नमः - बारसाणु पेक्खा सिरि कोंड कुदायरियों परुवदा मंगलाचरण / ग्रंथ प्रतिज्ञा मिऊण सव्व सिद्धे झाणुत्तम खत्रिद दीह संसारे । दस दस दो दो व जिणे दस दो अणुपेहणं श्रोच्छे ॥ १ ॥ - अन्वयार्थ : उत्तम झाण दीह संसारे खविद सव्व सिद्धे व दस दस दो दो जिणे णमिण दस दो अणुपेहणं वोच्छे - - - - उत्तम ध्यान (धर्म, शुक्ल) से जिन्होंने दीर्घ संसार को नष्ट कर दिया है ऐसे सम्पूर्ण सिद्धों को और चौबीस जिनेन्दों (तीर्थकरों ) को नमस्कार करके बारह अनुपेक्षाओं को ( मैं कुंदकुंदाचार्य) कहूँगा ॥१॥ १६ भावार्थ - उत्तम धर्म, ध्यान और शुक्ल ध्यान से जिन्होंने दीर्घ संसार को नष्ट कर दिया है ऐसे अतीत, अनागत और वर्तमान के सभी सिद्धों को तथा चौबीस तीर्थंकारों को नमस्कार करके मैं (कुंद कुंदाचार्य) बारह अनुपेक्षाओं को कहूँगा । १. यह गाथा मूलाचार में निम्न प्रकार से है । सिद्धे णमंसिदूणय झाणुत्तम खविय दीह संसारे । दह दह दो दो य जिणे दह दो अनुणवे हणा वुच्छं ।। ६९३ ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाण पक्रबा अनुप्रेक्षाओं के नाम अद्भुष मसरण-मेगत्त-मण्ण-संसार-लोग-मसुचित्तं । आसव-संवर-णिजर धम्मं बोहिं च चिंतेजो ।।२।। अन्वयार्थ: अद्भुवं, असरणं एगत्त . अनित्य (अध्रुव), अशरण, एकत्व अण्ण संसार लोगं असुचितं - अन्यत्व संसार, लोक, अशुचित्व आसव संवर णिज्जर . आम्रव, संवर, निर्जरा धम्मं च बोहिं धर्म और बोधि इनका चिंतेज्जो - चिंतन करो ॥२॥ भावार्थ- ध्यान और स्वतत्त्व के चिंतन में कारण भूत (१) अध्रुव (अनित्य) (२) अशरण (३) एकत्व (४) अन्यत्व (4) संसार (६) लोक (७) अशुचित्व (८) आम्रव (९) संवर (१०) निर्जरा (११) धर्म (१२) बोधि दुर्लभ ये बारह अनुप्रेक्षायें हैं। पूज्य आचार्य श्री उमा स्वामी ने इन बारह अनुप्रेक्षाओं का क्रम तत्त्वार्थ सूत्र में निम्न प्रकार से दिया है। अनित्याशरण संसारैकत्वा न्यत्वाशुच्यानव संवर निर्जरालोक बोधि दुर्लभ धर्म स्वाख्या तत्त्वानुचिन्तन मनुप्रेक्षाः तत्वार्थ सूत्र ९/७ अर्थात्: (१) अनित्य (२) अशरण (३) संसार (४) एकत्व (५) अन्यत्व (६) अशुचि (७) आस्त्रच (८) संवर (९) निर्जरा (१०) लोक (११) बोधि दुर्लभ (१२) धर्म ये स्वतत्त्व है इनका वार वार चिंतन करना अनुप्रेक्षा है।। विगगमन अनुप्रेक्षाओं के चिंतन से समता रूपी सुख उत्पन्न होता है समता आत्मा का | स्वभाव है एवं वही आत्मीय स्तूप है (ऐसे चलो मिलेगी राह कृति से), Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु चवस्था १. अध्रुव अनुप्रेक्षा ये शाशवत नहीं वर भवण-याण-वाहण-सयणासण-देव-मणुव-रायाणं । मादु-पिदु-सजण-भिच्च संबंधीणो व पिदि वियाणिच्चा ।।३॥ मूला चार में यह गाथा निम्न प्रकार से हैठाणाणि आसणणि य देवासुर इड्ढि मणुय सोक्खाई। मादु पिदु सयणसंवासदा व पीदी विय अणिचा ॥३१५।। अन्वयार्थ:वर भवण - श्रेष्ठ (ऊंचे) भवन याण यान वाहण वाहन शयन सोने की शैय्या आसन बैठने का सिंहासन आदि देव मणुव रायाणं देव, मनुष्य, राजा मादु-पिदु सजण माता, पिता स्वजन भिल्व व संबंधीयो नौकर तथा पुरजन पिदि - इत्यादि की प्रीति को आणिचा वियाण - (हे जीव तूं) अनित्य जान ||३|| भावार्थ- हे जीन तु ऊंचे-ऊंचे भवन, अटारी, महल तथा मोटर कार, रथ, साइकिल, स्कूटर, हेलीकॉप्टर, वायुयान आदि यान) तथा हाथी, ऊंट, घोड़ा, बैल. रेलगाड़ी आदि वाहन। प्लाट पलंग शैया, कुर्सी, बेंच, चौकी, सिंहासन आदि आसन। और देव मनुष्य राजा, माता, पिता और स्वजन नौकर तथा पुरवासी इन्हें अनित्य जानो। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु पेक्खा अन्वयार्थ: इंद्रधनुषसम सामग्गिं दियरूवं आरोग्गं जोव्वणं बलं तेजं । सोहणं लावणं सुरधशुमित्र सरसयं ण हवे ||४|| यहगाथा मूलाचार में इस प्रकार है सामग्गिं रूवं मदि जोवण जीवियं बलं तेजं । हि सयणासण भंडादिया अणिच्चेति चिंतेज़ो ।। ६९६ ।। सामग्गिं इंदिय रूवं आरोग्गं जोठवणं बलं तेजं सोहगं सुरधणुं इव सस्यं ण हवे १९ बाहय ( परिग्रह रूप) सामग्री इंद्रियां, रूप, आरोग्य यौवन, बल तेज सौभाग्य और लावण्य इंद्रधनुष की तरह शाश्वत नहीं है। अर्थात नष्ट होने वाले हैं। |४|| भावार्थ- चेतन अचेतन रूप समस्त बाह्य एवं रागद्वेष मोहरूप आभ्यंतर सामग्री ( परिग्रह ) सुंदर रूप, निरोगिता, यौवन अवस्था, शारीरिक या अन्य सैन्यादि बल शरीर का तेज (कांति) सौभाग्य, और लावण्यता विनाशीक है शाश्वत नहीं है। जा सासया ण लच्छी चक्राणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बंधेइ रई इयर - जणा अण्णाणं ॥ (का. अनु. १०) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाण करवा अहमिंदादि पद थिर नहीं जल बुब्बुद- सक्कवणु-खण- रुचि घण सोहमिव थिरं ण हवे । अहभिंद ठाणाई बलदेव पहुदि पज्जाया ।५।। जाया - अन्वयार्थ: अहमिंद वाणाई बलदेव पहुदि पन्जाया जल बुखुद सक्कधणु खण धण सोहं इव सस्सयं ण हवे अहमिद्रों के स्थान/पद बलदेव आदि पार्यायें जल बुद् बुद् इंद्रधनुष बिजली और बादल को शोभा की तरह। शाश्वत नहीं है। ||५|| भावार्थ- जल के बुदबुद (जल के गुब्बारे) इंद्रधनुष, बिजली, बादल की शोभा (सुंदर आकृति) की तरह, अहमिद्रों के पद एवं बलदेव आदि की पर्याय भी नाशवान है तो फिर संसार में कौन सा ऐसा पद या पर्याय है जो शाश्वत ध्रुव रह सकती हो? अर्थात् कोई नहीं। ऐसा चिंतन करो। ऐसा करने से तज्जन्य राग द्वेष, मोह छूटता है। चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे । णिन्सियं कुणह मणं जेण सुहं उत्तम लहह ।। (का, अ. २२) अर्थ- हे भव्य जीवो। समस्त विषयो को क्षण भंगुर जानकर महामोह को त्यागो और मन को विषयों से रहित करो, जिससे उत्तम सुख प्राप्त हो। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारसाणु पक्रवा आत्म देह का संबंध क्षीरनीरवत जीवणिबद्धं देहं खीरोदय मिव विणस्सदे सिग्धं । भोगोपभोग कारणदव्वं णिच्चं कहं होदि।।६।। अन्वयार्थ:जीव णिबद्धं देहं (जब) जीव से संबद्ध शरीर खीरोदय इव क्षौर नीर की तरह एक जैस दिखने पर भी सिग्धं विणस्सदे - शीघ्र विनष्ट हो जाता है भोग उपभोग कारणं दव्ध - (फिर) भोगोपभोग के कारण भूत इत्य/ पर्याय/वस्तुयें णिचं कहं होदि - नित्य कैसे हो सकती हैं? भाशर्थ- क्षीर नीर की तरह, एक मेक रहने वाला जीव से अनबद्ध यह शरीर भी जब शीघ्र ही नष्ट हो जाता है तो फिर भोगोपभोप की सामग्रियां कैसे शाश्वत रह सकती हैं। फिर उनमें आसक्ति क्यों? अर्थात् आसक्ति नहीं होना चाहिए। विगग-निधि मौत का कोई भरोसा नहीं, कब तुम्हे ग्रास बनाले | चाहे राजा हो या रंक, अमीर हो या गरीब, बृद्ध हो या बालक मौत किसी को नहीं छोड़ती। मौत बचपन और पचपन को नहीं देखती। अत: जीवन में मौत रूपी यमराज तुम्हें ग्रसने आए, उसके पूर्व ही अपने जीवन को धर्म से सुसज्जित करलो। (ऐसे चलो मिलेगी राह कति से) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारसाणू पतला शाश्वत आत्मा चिन्तनीय परमढेण दु आदा देवासुर मणुव राय विभवे हिं। वदि रित्तो सो अप्पा सस्सदमिदि चिंतए णिच्वं ।।७।। अन्वयार्थ: परमटेण दु आदा देवासुर मणुव राय विभषेहि वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदं इदि णिच्चं चिंतए परमार्थ (निश्चय नय) से जो आत्मा देवेन्द्र, असुरेन्द्र, मनुष्येन्द्र, की विभूति से रहित है वही आत्मा शाश्वत है ऐसा नित्य ही चिंतन करना चाहिए ।।७|| भावार्थ- परमार्थ चानि निश्चय नय से जो आत्मा देवेन्द्र आर्थात् सौधर्मेन्द्र, असुरेन्द्र अर्थात् धरणेन्द्र और मनुष्येन्द्र अर्थात् चक्रवर्ती की विभूति धन दौलत, निधि, रत्न खजाने सेना आदि से रहित हैं, ऐसी वही आत्मा हमारी है और शाश्वत रहने वाली है ऐसा चिंतन करना चाहिए। एगो में सस्सदो अप्पा गाण दसण लक्खणो । सेमा में बाहिरा भावा सब्वे संजोग लक्खणा ।। (मूलाचार) अर्थ- वास्तव में ज्ञान, दर्शन स्वभावी एक आत्मा ही शाश्वत है शेष अन्य पदार्थ नहीं वे तो संयोगी अवस्थायें है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पेक्खा २. अशरण- अनुप्रेक्षा ये सभी मृत्यु से नहीं बचा सकते मणि मंतो- सह - रक्खा हय गय रह ओ य सयल विज्जाओ । जीवाणं णहि सरणं तिसु लोए मरणसमयहि ||८|| सह गाथा मूलाचार इस प्रकार है हयगय रहार बल वाहणाणि मंतोसाधाणि विज्जाओ । मच्छुभयस्स ण सरणं णिगडी णीदीय णीया च ।। ६९७।। अन्वयार्थ: - तिसु लोए जीवाणं मरण समयहि मणि मंतओ सह रक्खा हयगय रहओ य सयल विजाओ सरणं हि तीनों लोक में जीवों को मृत्यु / मरण के समय मणि, मंत्र, औषधि घोड़ा, हाथी, रथ, सम्पूर्ण विद्यायें (भी) शरण नहीं है ||८|| और २३ भावार्थ- ऊर्ध्व, मध्य तथा अधो इन तीनों लोकों में जीव को मृत्यु से न तो कोई मणिबचा सकता है, न मंत्र न औषधियाँ, यहां तक ही नहीं किंतु शक्तिशाली हाथी, वेग से दौड़ने वाला घोड़ा, सुदृढ़ ( मजबूत ) रथ एवं विश्व की सम्पूर्ण विद्यायें भी नहीं बचा सकती है अर्थात् ये कोई भी हमारे लिये शरण भूत नहीं है। पर हाँ! यदि आत्मा की भव भ्रमण से रक्षा करने वाली कोई शरण है तो वह हैंचत्तारिशरणं, अरहंत, सिद्ध, साधू, और केवली प्रणीत धर्म है अथवा "शुद्धातम अरु पंच "गुरु जग में शरणा दोय" हमारा आत्मा तथा अरहंत सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी ही हमें शरण भूत है और कोई हमारे लिये शरण नहीं है। ऐसा चिंतन करने से दीनहीनता समाप्त होती है और आत्म कल्याण रूप लक्ष्य में एकाग्रता बढ़ती है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारसाणु पक्रवा २४ । मृत्यु काल से इन्द्र भी नहीं बचा सग्गो हवे हि दुग्गं भिच्चा देवा य पहरणं वजं । अइरावणो गइंदो इंदस्स विजदे सरणं ।।९।। अन्वयार्थ: सग्गो हवे हि दुर्ग ये देवा भिच्चा पहरणं वजं अइरावणो गइंदो इंदस्स सरणं ण विजदे स्वर्ग ही जिसका दुर्ग है और देवतागण नौकर हैं प्रहार या रक्षक वज्र हैं ऐरावत (जिसका) हाथी है ऐसे इंद्र को (भी कोई) शरण नहीं है ।।९।। - भावार्थ- स्वर्ग ही जिसका दुर्ग/किला है, देवताओं का समूह जिनका नौकर सेवक है। शत्रुओं पर प्रहार कर अपनी रक्षा करने वाला अस्त्र ही जिसका वज (शक्ति) है। तथा ऐरावत जिसका हाथी है। ऐसे सौधर्मेन्द्र को भी कोई शरण नहीं है अर्थात मृत्यु से नहीं बच सका तो फिर संसार में अब ऐसा कौन सी वस्तु हैं जो मृत्यु से बचा सकेगी। अथवा | ऐसा कौनसा व्यक्ति है जो मृत्यु से बच सकेगा? अर्थात-चरम शरीरी जीवों को छोड़कर कोई नहीं है। • यह काल का जाल अथवा फन्दा ऐसा है कि क्षण मात्र मे जीवों को फीस लेता है और सुरेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र तथा नागेन्द्र भी इसका निवारण नहीं कर सकते हैं। (ज्ञा. आ.) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पेक्खा अन्वयार्थ: काल - कवलित चक्री भी 'णवणिहि चउदहरयणं हयमत्त गइंदचाउरंग बलं । चक्के सस्स ण सरणं पेच्छंतो कद्दये कालो ||१०॥ णव णिहि उदहरयणं हयमत्त इंद चउरंग बलं चक्केसस्स सरणं ण पेच्छतो कालोकये नवनिधि चौदह रत्न घोड़ा, 'मत्त गजेन्द्र / हाथी चतुरंग सेना ( से युक्त ) चक्रवर्ती को भी २५ (यह सपा ) शरण नहीं है की देखते हुये काल कर्दन कर देता हैं| ||१०|| भावार्थ- चक्र, छत्र, खड्ग (तलवार), दण्ड, काकिणी, मणि, चर्म, सेनापति, गृहपति, गज, अश्व (घोड़ा), पुरोहित, स्थापित ( कारीगर ) और पटरानी ये चौदह रत्न | तथा काल, महाकाल, पाण्डु माणव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल, और नाना रत्न रूप ये नव निधियां | घोड़ा मदोन्मत्त शक्तिशाली हाथी तथा हाथी, घोड़ा, रथ और पदाति रूप चतुरंग सेना से युक्त चक्रवर्ती को भी ये सब शरण नहीं है। इन सब के होते हुये भी जब उसे भी मृत्यु नही छोड़ी तो फिर अन्य किसको छोड़ सकेगी। अर्थात् किसी को भी नहीं। तो फि र क्यों न हम उसके ( मृत्यु के ) आने के पूर्व अपना हित करलें । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु पैक्खा अन्वयार्थ: वास्तविक शरण आत्मा जाड़ जरा मरण रुजा भयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्त कम्मवदि रित्तो || ११|| - जाइ जरा मरण रुजा भय दो अप्पणो अप्पा रक्खे दि तम्हा बंध उदय सत्त कम्म वदिरित्तो आदा सरां - - २६ ( इस जीव को ) जन्म बुढ़ापा मरण रोग भय से आत्मा की आत्मा ही रक्षा करता है इस लिये बंध उदय सत्वरूप कर्म से रहित आत्मा शरण है| || ११ ॥ भावार्थ - जन्म (उत्पत्ति), जरा ( बुढ़ापा ) और मृत्यु ( मरण) रूपी रोगों के भय से अपनी आत्मा की अपनी आत्मा ही रक्षा करती है। अन्य दूसरा कोई रक्षा नहीं करता है। इसलिये निश्चय से बंध उदय और सत्व रूप कर्मों से रहित हमारी आत्मा ही हमारे लिए शरण भूत हैं। • यथा बालं तथा वृद्धं यथायं दुर्विधं तथा । यथा शूरं तथा भीरुं साम्येन ग्रसतेऽन्तकः ।। ( ज्ञा. आर्णव. ) अर्थ- - यह काल जैसे बालक को ग्रसता है, वैसे ही वृद्ध को भी ग्रसता है और जैसे धनाढ्य को ग्रासता है, उसी प्रकार दरिद्र को भी। तथा जैसे शूरवीर को ग्रसता है उसी प्रकार कायर को भी। जगत के सभी जीवों को समान भाव से ग्रसता है किसी में भी इसका हीन अधिक विचार नहीं है इसी कारण इसका नाम समवर्ती भी है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसा रोयरखा ऐसी आत्मा ही शरण है अरुहा सिद्धाइरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥१२॥ अन्वयार्थ: अरुहा सिद्ध आइरिया उवज्झाया साहु पंचपरमेष्ठी ते विहु आदे चिट्ठदि अहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधु ये पंचपरमेष्ठी है वे भी निश्चय से आत्मा में रहते हैं इसलिये निश्चय से मुझे अपनी आत्मा ही शरण है।॥१२॥ तम्हा हु मे आदा सरणं - भावार्थ- आत्मा ही अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांचों परमेष्ठी । की क्रमिक चेष्टा करता है। इसलिये निश्चय नय से वह अपनी मेरी आत्मा ही मुझे शरण है और कोई शरण नहीं है। • शीच्यन्ते स्वजनं मूर्खा: स्वकर्मफल भोगिनम्। . नात्मानं बुद्धिविध्वंसा यमदंष्ट्रान्त रस्थितम्।। (शा. आ.) अर्थ- यदि अपना कोई कुटुंबी जन अपने कर्मवशात मरण को प्राप्त हो जाता है तो राद्धि पार्वजन उसका शोच करते है परन्तु स्वयं यमराज की दाढ़ों में आया हुआ है, इसकी चिंता कुछ भी नहीं करता है यह बड़ी पार्वता है Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाण पपरया आराधना रूप आत्मा ही शरण है सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित च सत्तवो चेष । चउरो चिट्ठदि आदे तम्हा आदाहु मे सरणं ॥१३|| अन्वयार्थ: सम्मत सण्णाणं च सम्चारित्तं - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र च एक सत् तयो - तथा इसी प्रकार सम्यक् तप चउरो आदे चिट्ठदि . - ये चारों आत्मा में ही रहते हैं तम्हा हु - इसलिए निश्चय से मे भासा सणे ... मुझे झात्मा ही शरण है ॥१३॥ भावार्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ये चारों आराधनायें आत्मा में ही रहती है अर्थात् आत्मा ही चारों आराधना रुप चेष्टा करता है इसलिये निश्चय से मुझे वह अपनी आत्मा ही शरण है। • यस्मिन्संसार कान्तारे यमभोगीन्द्र सेविते। पुराणपुरुषा: पूर्वमनन्ताः प्रलयं गताः॥ (ज्ञा. आ.) अर्थ- काल रूप सर्प से सेवित संसार रूपी वन में पूर्व काल में अनेक पुराणपुरूष (शलाकापुरूष) प्रलय को प्राप्त हो गये, उनका विचार कर शोक करना वृथा है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाण पपरवा ३. एकत्व- अनुप्रेक्षा स्वधं कर्ता - भोक्ता एक्को करेदि कम्म एक्को हिंडदि य दीह संसारे । एक्को जायदि मरदिय तस्स फलंभुजंदे एक्को॥१४॥ मूलाचार में यह गाथा इस प्रकार हैएक्को करेइ कम्म एक्को हिंडदिय दीह संसारे। एक्को जायदि मरदिय एवं चिंतेहि एयत्तं ॥७०१।।. अन्वयार्थ: एक्को करेदि कम्म य एषको दीह संसारे हिंडदी एक्को जायदि मरदिय एक्को तस्स फलं भुंजदे - यह जीव एक अकेला ही कर्मों को करता है - और अकेला दीर्घ संसार में - घूमता है - अकेला जन्म लेता है और अकेला मरता है - और अकेला ही उसके फलों को भोगता ||१४|| भावार्थ- यह संसारी जीव स्वयं अकेला ही नाना प्रकार के शुभाशुभ कर्मों को करता है। और अकेला ही उनके फलों को भोगता है। तथा अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरण करता है। तथा अकेला ही दीर्घ संसार में घूमता है। • दाणु ण दिण्णउ मुणिवर है ण वि पुजिउ जिण-णाहु। पंच ण वंदिउ परम-गुरू किमु होसउ सिव लाहु ।। (प.प्र.२/१६८) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसा पसरवा अकेला ही पाप करता और फल भोगता एक्को करेदि पावं विसयणिमित्तेण तिव्यलोहेण । णिरय तिरियेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को।।१४|| - यह जीव अन्वयार्थ: जीयो तिव्वलोहेण विसय णिमित्तेण एक्को करेदि पावं तस्स फलं णिरय तिरियेसु एक्को भुंजेदि - तीव्र लोभ से युक्त होकर - विषयों के निमित्त से , अकेला पाप करता है - उसके फलों को - नरक और तिर्यंच गति में - अकेला ही भोगता हैं। ||१५|| भावार्थ- यह संसारी जीव तीव्र लोभ से युक्त होकर के, पंचेन्द्रियों के विषयों के निमित्त अकेला ही पाप करता है और उसके फलों को नरक व तिर्यंच गति में जाकर अकेला ही भोगता है। तात्पर्य यह है कि अपने द्वारा किये पापों से नरक व तिर्यंच गति में जाता है। और वहां पाप के फलों को अकेला ही भोगता है। • एकत्वं किं न पशयन्ति, जड़ा जन्मग्रहर्दिताः । यज्जन्म मृत्युसम्पाते, प्रत्यक्षमनुसूयते ।।ज्ञानार्णव।। अर्थ-आचार्य महाराज कहते है कि, ये मूर्ख प्राणी संसाररूपी पिशाच से पीड़ित हुए भी अपने एकता को क्यों नही देखते जिसे जनममरण प्राप्त होने पर सब ही जीव प्रत्यक्ष में अनुभवन करते है. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारसाण परवा . अकेला ही पुण्य करता है और फल भोगता एक्को करेदि पुण्णं धम्मणिमित्तेण पत्तदाणेण । मणुवदेवेसु जीवो तस्मफलं भुंजदे एक्को॥१६|| अन्वयार्थ: जीवो धम्मणिमित्तेण पत्त दाणेण पुण्णं एक्को करेदि तस्स फलं मणुव देवेसु एक्को भुंजेदि - यह जीव • धर्म के निमित्त - सत् पात्रों को दान देने से - पुण्य को अकेला प्राप्त करता है - और उसके फलों को - मनुष्य व देवों में - अकेला ही भोगता हैं । ।११६|| भावार्थ- यह जीव धर्म के निमित्त सतपात्रों को दान देने से पुण्य को भी अकेला ही करता है और उसके फलों को वर्तमान भव की अपेक्षा कर्म भूमि मनुष्यों में और भावि भव की अपेक्षा भोग भूमियां मनुष्यों में व देव पर्यायों में अकेला ही भोगता है। • महाव्यसनासंकीर्णे दुःखज्वलनदीपिते । एकाक्येव भ्रमत्यात्मा दुर्गे भवमरुस्थले।। (ज्ञा,आ.) अर्थ- महा आपदाओं से भरे हुए दुःख रूपी अग्नि से प्रज्वलित और गहन ऐसे संसार रूपी मरुस्थल में यह जीव अकेला ही भ्रमण करता है कोई भी इस का साथी नहीं है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाराणु प्रया पात्र-अपात्र का वर्णन उत्तम भाषियं कानमुणेण संयुमो सार । सम्मादिढी सावय मज्झिमपत्तो हु विणणेओ॥१७|| णिद्दिट्ठो जिणसमये अविरद सम्मो जहण्ण पत्तोत्ति। सम्मत्त रयण रहिओ णपत्त मिदि संपरिक्खेजो॥१८॥ अन्वयार्थ:जिण समये - जिनागम में सम्मत्त गुणेण संजदो साहू - सम्यक्त्व गुणसे युक्त सकल संयमी मुनिजनों को उत्तम पत्तं भणियं - उत्तम पात्र कहा है। और सम्मादिट्ठी सावय - सम्यग्दर्शन से युक्त देश व्रती श्रावक को मज्झिमपत्तो - मध्यम पात्र कहा है। अविरद सम्मो - अविरत मम्यग्दृष्टि जीवों को। जहण्ण पत्तोत्ति विष्णेओ - जघन्य पात्र कहा है। ऐसा जानो सम्मत्त रायण रहिओ - किंतु सम्यक्त्व रत्न से रहित पत्तंण - पात्र नहीं हो सकता है। इदि संपरिक्खेजो - इस प्रकार पात्र की अच्छी तरह परीक्षा करनी चाहिए | ||१७.१८|| भावार्थ- आगम ग्रंथों में सम्यक्त्व गुण से युक्त सकल संयमी मुनिजनों को उत्तम पात्र कहा है। और सभ्यग्दर्शन से युक्त व्रती श्रावक को मध्यम पात्र कहा है तथा अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों को जघन्य पात्र कहा है किंतु सम्यकच रत्न से रहित पात्र नहीं हो सकता है। इस प्रकार पात्र की अच्छी तरह परीक्षा करनी चाहिए। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारसाररवा सिद्धि किसे नहीं दसण भट्टा भट्टा, देसण भट्टस्य.णस्थिणिवाणं । सिझंति चरियभट्टा, दंसण भट्टा ण सिझंति ।।१९।। अन्वयार्थ: दसण भट्टा भट्टा दसण भट्टस्स णिव्वाणं णस्थि चरिय भट्टा सिझंति - दर्शन से भ्रष्ट, भ्रष्ट हैं, क्योंकि - दर्शन से भ्रष्ट रहित जीव को • निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती है। - चारित्र से भ्रष्ट - (फिर भी) सिद्धि / मुक्ति को प्राप्त कर सकता है किन्तु - दर्शन से भ्रष्ट को सिद्धि मुक्ति/निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती ||१९|| दसण भट्टा सिझंतिण भावार्थ- दर्शन से भ्रष्ट (पतित) वास्तव में भ्रष्ट ही है। क्योंकि दर्शन से रहित जीव को निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति नहीं होती, चारित्र भ्रष्ट एक दृष्टि से मुक्ति पा सकता है किन्तु दर्शन से भ्रष्ट जीव कभी भी मुक्ति को नही पा सकता हैं। • विसया मिसेहि पुण्णो अणत सोक्खाप हे दुसम्मत्तं। सच्चारित्त जहदि हु हणं व बज्ज च मज्जादणं ।। अर्थ- विषय भोगों से परिपूर्ण पुरुष अनन्त सुख के कारण भूत सम्यकत्व. सम्यक्चारित्र तथा लज्जा और मर्यादा को तृण समझ छोड़ देता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વારા વારવા शुद्धात्म स्वरूप उपादेय एक्कोहं णिम्ममो सुद्धोणाणदसण लक्खणी। सुद्धे यत्तमुपादेयमेवं चिंतेह संजदो ।।२०।। अन्वयार्थ: अहं एक्को णिम्ममो - मैं एक हूँ, ममता से रहित हूँ। सुद्धोणाणदसंण लक्षणो - (शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से) शुद्ध हूँ, ज्ञान दर्शन लक्षण वाला हूँ। अत: मुझे सुद्धं एयत्तं उपादेयं - शुद्ध और एकत्व (स्त्रभाव) उपादेय ग्रहण करने योग्य है। एवं संजदो चिंतेह इस प्रकार साधुओं को चिंतन करना चाहिए ॥२०॥ भावार्थ- मैं शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से एक हूँ, ममता से रहित हूँ शुद्ध हूँ, ज्ञान और दर्शन ही मेरा लक्षण है। अत: मुझे मेरा शुद्ध और एकत्व स्वभाव उपादेय है। इस प्रकार से | साधुओं को निरंतर चिंतन करना चाहिए। • एकोहं निर्ममः शुद्धो, ज्ञानी योगीन्द्र गोचरः। बाह्या; संयोगजा भावा, मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ।। अर्थ- मैं एक ममतारहित शुद्ध ज्ञानी और योगियों के द्वारा जानने योग्य हूँ। इसके अलावा संयोगजन्य, जितने भी देहादिक पदार्थ है वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार विवरा ४. अन्यत्व अनुप्रेक्षा . सांसरिक संबंध स्वार्थमूलक मादा पिदर सहोदर पुत्तकलत्तादि बंधु संदोहो । जीवस्सा संबंध णियकज्ज वसेण वट्टति ||२१|| मूलाचार में यह गाथा इस प्रकार हैमादु पिदु सयण संबंधिणो ये सव्वे वि अत्तणो अण्णे । इह लोग बंधवा ते ण य पर लोगं समं णेति ।। ७०२॥ अन्वयार्थ: मादा पिदर सहोदर संदोहो पुत्त कलत्त बंधु णिय कज्ज वसेण वट्टति जीवस्स संबंधी ण . - - - - माता, पिता, भाई बहिन शरीर से संबंध रखने वाले ३५ पुत्र स्त्री तथा मित्रादि अपने निज कार्य (स्वार्थवश ही) प्रवृत्ति करते हैं (वास्तव में इन सबसे) जीव का कोई भी संबंध नहीं है | ॥२१॥ भावार्थ- माता-पिता, भाई, बहिन, शरीर से संबंधी पुत्र स्त्री और मित्र आदि अपने निजी कार्य ( स्वार्थ) वश ही प्रवृत्ति करते हैं वास्तव में इन सबसे जीव का कोई संबंध नहीं है। विरागामृत • संसार स्वप्न में मत खोजाना, नहीं तो इसी संसार में घूमोगे । ( दूर नहीं है मंजिल कृति से ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पैवखा अन्वयार्थ: मण्णंती मम णाहगोत्ति मदोत्ति अण्णोअण्णं - अपणो अण्णं सोयदि मदोत्ति मम णाहगोत्ति मण्णंतो ! अप्पाणं णहु सोयदि संसार महण्णवे बुद्धं ||२२|| मोह की माया सोयदि संसार महण्णवे बुडुं अप्पा हु सोयदि - - - - - ३६ प्राय: संसारी प्राणी ऐसा मानते हैं कि जो मेरा नाथ था वह मर गया इत्यादि प्रकार से एक दुसरे के विषय में सोचता हैं (शोक करता हैं किंतु ) संसार समुद्र में डूबती हुई (अपनी ) आत्मा के विषय मे नहीं सोचता है | ||२२|| भावार्थ- प्राय: प्राणी यह सोचता है कि जो मेरा नाथ / स्वामी / पालक / संरक्षक था। वह मर गया । इत्यादि प्रकार से परस्पर एक दूसरों के विषय में सोचता हैं शोक करता है परंतु संसार रूपी महार्णव / समुद्र में डूबती अपनी आत्मा के विषय में कुछ भी नहीं सोचता। • अंधी निवडइ कूबे बहिरों ण सुणेदिं साधु उवदेस | पेच्छं तो णिसुतो मिरए जपज्इ तं चोज्जं ।। || तिलोयपण्णी ६२२॥ अर्थ- यदि अन्धा कुएँ में गिरता है और बहरा सदुपदेश नहीं सुनता तो कोई आश्चर्य नहीं किन्तु जो देखता एवं सुनता हुआ नरक में पड़ता है। तो आश्चर्य है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसास्वा ३७ शरीरादि भी अन्य है अण्णं इमं सरीरादिगं पि होज्ज बाहिरं दव्यं । णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णलं ॥२३॥ मूलाचार में यह गाथा ७०४ नं. पर है वहां पर दंसणमादा के स्थान पद सणमादात्ति आया है। अन्वयार्थ: पाणं दसण आदा इमं सरीरादिगं बाहिरं दव्यं पि अण्णं होज्ज एवं अण्णतं चिंतेहि - ज्ञान दर्शन ही आत्मा हैं शेष - ये शरीरादि बाहरी - द्रव्य भी - अन्य हैं - इस प्रकार से अन्यत्व भावना का चिंतन करो ॥२३॥ भावार्थ- हे जीव! ज्ञान दर्शन ही आत्मा है। ये आत्मा के है इसके अलावा ये शरीर आदि बाहरी द्रव्य भी अन्य हैं। भिन्न हैं। आत्मा के नहीं है। इस प्रकार से निरंतर चिंतन करो। • अन्यथा वेद पाण्डित्यं शास्त्र पाण्डित्य मन्यथा अन्यथा परमं तत्त्वं लोका क्लिश्यन्ति धान्यथा।। प. प्र. टी १/२३॥ अर्थ- वेद शास्त्र तो अन्य तरह ही है। नय प्रमाण रूप है। तथा ज्ञान की पंडिताई कुछ और ही है। वह आत्मा निर्विकल्प है। नय प्रमाण निक्षेप रहित वह परमतत्त्व जो केवल आनंद रूप है और ये लोग अन्य ही मार्ग में लगे हुए है। तो वृथा क्लेश कर रहे है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारसा पेपरवा ३८ ५. संसार अनुप्रेक्षा परिभ्रमण का कारण पंच विहे संसारे जाइ जरा-मरण-रोगभय पउरे । जिणमग्गमपेच्छंतो जीवोपरिभमदि चिरकालं ॥२४॥ अन्वयार्थ: जीवो जिणमगमपेच्छतो पउरे जाइ जरा मरण रोग भय - यह जीव - जिनमार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग को न जानता हुआ - प्रचुर जन्म, बुढ़ापा, मरण • रोग भय से युक्त - पांच प्रकार के संसार में - दीर्घकाल तक - परिभ्रमण करता है ॥२४|| पंच विहे संसारे चिरकालं परिभमदि भावार्थ- यह संसारी जीच जिनमार्ग/जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बताया हुआ मोक्ष मार्ग को न जानता हुआ अथवा उसमें श्रद्धान न करता हुआ प्रचुर जन्म, बुढ़ापा मरण, रोग, भन्म में युक्त, ट्रन्य, क्षेत्र काल, भाव और भव रूप, पांच प्रकार के संसार में दीर्घ काल तक परिभ्रमण करता है। विराग-सुमन • जागो जागरण तुम्हारी क्षमता है, तुम्हारी संभावना है. जैसे बीज में वृक्ष छिपा है ऐभे ही तुम में परमात्मा छिपा है। (दर नहीं है मंजिल कृति से Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणू पवस्वा १. द्रव्य परिवर्तन संसार सव्वे वि पोगला खलु एगे भुतुझिया हु जीवेण! असयं अर्णतखुत्तो पोग्गल परियट्ट संसारे ।।२५।। अन्वयार्थ: पोग्गल परियट्ट संसारे जीवेण खलु मम्मो गुग्गला अणंत खुत्तो एगे हु भुज्झिया असयं . पुद्गल परिवर्तन रूप संसार में - इस जीव के द्वारा . नियम से मार्ग पुटगलों को - अनंत क्षेत्र प्रमाण अनंत बार - अकेले ही - भोगकर छोड़ा गया और फिर उसे - खाया गया/भोगा गया ॥२५|| भावार्थ- इस जीव के द्वारा सभी पुद्गलों को अनंत बार भोग कर छोड़ा गया है | तथा पुन: उन्हीं को असकृत (अनेक बार) अकेले ही भोगा गया इस प्रकार अनंत क्षेत्र प्रमाण परिवर्तन को पुद्गल परिवर्तन कहते हैं। विशेषार्थ- संसरण करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिवर्तन है। यह जिन जीवों के पाया जाता है वे संसारी हैं। परिवर्तन के पांच भेद हैं-द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन। द्रव्य परिवर्तन के दो भेद हैं। नोकर्म द्रव्य परिवर्तन, और कर्म द्रव्य परिवर्तन। नोकर्म द्रव्य परिवर्तन का स्वरूप जैसे-किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया । अनन्तर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु वैक्खा ૪ वे पुद्गल स्निग्ध या रुक्ष स्पर्श तथा वर्ण आदि के द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भावरूप से ग्रहण किये थे उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत स्निग्ध या रुक्ष स्पर्श तथा वर्ण और गन्ध आदिके द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भावरूप से ग्रहण किये थे और बीच में ग्रहीत परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा। तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही नोकर्म परमाणु उसी प्रकार से नोकर्म भाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन होता होता है तथा कर्मद्रव्यपरिवर्तन का स्वरूपं एक जीवने आठ प्रकार के कर्मरूपसे जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, वे समयाधिक एक आवलीकालके बाद द्वितीयादिक समयोंमें झर गये। पश्चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से उस जीव के जब कर्मभाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब एक कर्म द्रव्यपरिवर्तन कहलाता है। इसे ही पुद्गल परिवर्तन संसार कहते हैं। भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान मया सर्वेपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य, मम विज्ञस्य का स्पृहा । || इष्टोपदेश ३०|| अर्थ- मोह से मैने सभी पुदगल परमाणुओं को बार-बार भोगा और छोड़ा है। अब जूठन के समान उन त्यक्त पदार्थों के प्रति मुझ बुद्धि मान की क्या इच्छा हो सकती है? अर्थात् अब उनके प्रति इच्छा ही नहीं है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणू पेपरवा २. क्षेत्र परिवर्तन संसार सम्हि लोयखेने कमसो तंणत्धि जंण उप्पण्णं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत संसारे ॥२६॥ अन्वयार्थ: खेत्त संसारे उग्गाहणेण सव्वम्हि लोय खेत्ते . परिभमिदो तंत्थि क्षेत्र संसार में जघन्य उत्कृष्ट अनेक प्रकार की अवगाहना के द्वारा सम्पूर्ण लोक के प्रत्येक क्षेत्र में परिभ्रमण करते हुए एक भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहां (यह जीव) क्रम से अनेक बार उत्पन्न नहीं हुआ हो कमसो बहुसो उप्पण्णं ण भावार्थ- क्षेत्र परिवर्तन रूप संसार में जघन्य उत्कृष्ट आदि अनेक प्रकार की अवगाहना शरीर की ऊंचाई के द्वारा सम्पूर्ण लोक के प्रत्येक क्षेत्र में परिभ्रमण करते हुए ऐसा एक भी प्रदेश शेष नहीं है जहां यह जीव क्रम से अनेक बार उत्पन्न नहीं हुआ हो। विशेषार्थ- जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव लोकके आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीकर मर गया। पश्चात् वही जीव पुनः उसी अवगाहना से वहां दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथीबार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार घनांगुलके असंख्यतावें भाग में आकाश के जितने प्रदेश प्राप्त हों उतनी बार वही उत्पन्न हुआ पुन: उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकरसब लोक को अपना जन्म क्षेत्र बनाया इस प्रकार यह सब मिलकर क्षेत्रपरिवर्तन होता है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसा पेयखा उस्सप्पिणि अवसप्पिणि समयावलियासु णिरवसेसासु । जादो मुद्दो य बहुसो परिभमिदो काल संसारे ||२७|| अन्वयार्थ: ३. काल परिवर्तन - संसार - परिभमिदो काल संसार उस्सप्पिणि अवसप्पिणि णिरवसेसासु समयावलियासु बहुसो जादो या मुदो - - - - काल संसार में परिभ्रमण करता हुआ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी सम्पूर्ण समयों और आवलियों में ४२ ( यह जीव) अनेक बार जन्मा और मरा है ॥२७॥ भावार्थ- काल संसार में परिभ्रमण करते हुए उत्सर्पिणी और अब सर्पिणी के संपूर्ण समयों और आवलियों में यह जीव अनेक बार उत्पन्न (जन्मा) हुआ और मरा है। में विशेषार्थ - अब कालपरिवर्तनका स्वरूप- -कोई जीव उत्सर्पिणी के प्रथम समय उत्पन्न हुआ और आयुके समाप्त हो जाने पर मर गया। पुन: वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और अपनी आयुके समाप्त होने पर मर गया। पुनः वही जीव तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इसने क्रमसे उत्सर्पिणी समाप्त की और इसी प्रकार अवसर्पिणी भी। यह जन्मका नैरन्तर्य कहा । तथा इसी प्रकार मरण का भी नैरन्तर्य लेना चाहिए। इस प्रकार यह सब मिलकर एक कालपरिवर्तन है • नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो ( ब्र. स्वयं भू स्तोत्र) I Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु वैवस्था अन्वयार्थ: ४. भव परिवर्तन संसार शिरयाउ जहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लिया दु गेवेज्जा | मिच्छत्त संसिदेण दु बहुसो वि भवह्निदी ||२८|| मिच्छत्त संसिदेण जाव दु उवरिल्लिया हु गेवेज्जा णिरयादि जहण्णादिसु भवदिदी बहुसो वि भमिदो AM - - ( इस जीव ने ) मिथ्यात्व के संसर्ग से उपरिम ग्रेवेयक से लेकर - ४३ नरक आदि की जघन्य आदि स्थितियों से युक्त होकर अनेक बार भ्रमण किया ||२८|| भावार्थ- मिथ्यात्व के संसर्ग से इस जीवने उपरिम गैवेयक से नरक तिर्यंच मनुष्य और देवों की जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट स्थितियों से युक्त 'होकर क्रमश: अनेक बार भ्रमण किया है। विशेषार्थ भव परिवर्तन का स्वरूप - नरक गति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। एक जीव उस आयु से वहां उत्पन्न हुआ, पुनः धूम-फिरकर उसी अग्यु से वहीं उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मरा। पुनः आयु के एक-एक समय बढ़ाकर नरक की तें सीस सागर आयु समाप्ति की। तदनन्तर नरक से निकलकर अन्तर्मुहूर्त आयुके साथ तिर्यंचगतिमें उत्पन्न हुआ। और पूर्वोक्त क्रमसे उसने तिर्यंचगति की तीन पल्योपम प्रमाण आयु समाप्त की । इसी प्रकार मनुष्यगति में अन्तर्मुहूर्त से लेकर तीन पल्योपम प्रमाण आयु समाप्त की । तथा देवगतिमें नरक गति के समान आयु समाप्त की । किन्तु देवगति में इतनी विशेषता है कि वहां इकतीस सागरोपम आयु समाप्त होने तक कथन करना चाहिए क्योंकि इस के आगे मिथ्यात्व के साथ उत्पन्न नहीं हो सकता है। ग्रैवेयक के ऊपर नियम से सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार यह सच मिलकर एक भवपरिवर्तन है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसामु वेवस्था ५. भाव परिवर्तन - संसार सव्ये पर्याडविदिओ अणुभाग- पढेस- बंध ठाणाणि । जीवो मिच्छत्तवसा भमिदो पुण भावसंसारे ||२९|| अन्वयार्थ: जीवो मिच्छत्तवसा सव्वेपयडि दिदिओ अणुभाग पदेस बंध ठाणाणि पुण भाव संसारे भमिदो - - - - इस जीव ने मिथ्यात्व के वशीभूत होकर सम्पूर्ण कर्मों की प्रकृति स्थिति, और प्रदेश अनुभाग बंध के स्थानों को अनेक बार प्राप्त कर भाव संसार में भ्रमण किया ||२९|| ४४ भावार्थ- मिथ्यात्व के वशीभूत होकर इस जीव ने सम्पूर्ण कर्मों की प्रकृति स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के स्थानों को अनेक बार प्राप्त कर भाव संसार में भ्रमण किया है। विशेषार्थ भाव परिवर्तन का स्वरूप-पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृतिकी सबसे जघन्य अपने योग्य अन्त: कोडाकोडीप्रमाण स्थिति को प्राप्त होता है। उसके उस स्थिति के योग्य षट्स्थानपतित असंख्यता लोकप्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थान होते है। और सबसे जघन्य इन कषाय अध्यवसायस्थानोके निमित्त से असंख्यात लोकप्रमाण अनुभाग अध्यवसायस्थान होते है इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य काय अध्यवसाय स्थान और सबसे जधन्य अनुभागअध्यवसायस्थानको धारण करने वाले इस जीव के तद्योग्य सबसे जघन्य योगस्थान होता है। तत्पश्चात् स्थिति, कषायअध्यवसायस्थान और अनुभाग अध्यवसायस्थान वही रहते हैं, किन्तु योगस्थान Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु परखा दूसरा दूसरा हो जाता है जो असंख्यात भागवृद्धिसंयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे, चौथे । आदि योगस्थानों में समझना चाहिए। ये सब योगस्थान चार स्थान पतित होते हैं और इनका प्रमाण श्रेणी के असंख्यातवें भागप्रमाण है। तदनन्तर उसी स्थिति और उसी कषायअध्यवसायस्थान को धारण करलेवाले जीव के दूसरा अनुभागअध्यवसायस्थान होता है। इसके योगस्थान पहलेके समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ भी पूर्वोक्त तीनों बातें ध्रुव रहती हैं किन्तु योगस्थान जगश्रेणी के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागअध्यवसायस्थानोंके होने तक तीसरे आदि अनुभाग अध्यवसायस्थानों में जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्यवसायस्थान तो जघन्य ही रहते हैं किन्तु अनुभागअध्यवसायस्थान क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण हो जाते हैं और एक-एक अनुभागअध्यवसास्थानके प्रति जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान होते हैं। तत्पश्चात् उसी स्थिति को प्राप्त होनेवाले जीवके दूसरा कषायअध्यवसायस्थान होता है। इसके भी अनुभागअध्यवसायस्थान और योगस्थान पहले के समान जाना चाहिए। अर्थात् एक-एक कषायअध्यवसायस्थानके प्रति असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागअध्यवसायस्थान होते हैं और एक - एक अनुभागअध्यवसायस्थान के प्रति जगश्रेणी के असंख्यातवें भागप्रमाण होने तक तीसरे आदि कषाय अध्यवसाय स्थानों में वृद्धिका क्रम जानना चाहिए। जिस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति के कषायादि स्थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्य स्थितिके भी कषायादि स्थान जानना चाहिए और इसी प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे तीस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तक प्रत्येक स्थितिविकल्पके भी कषायादि स्थानों को जानना चाहिए। अनन्त भागवृद्धि असंख्यात भागवृद्धि संख्यात भागवृद्धि संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि इस प्रकार ये वृद्धि के छह स्थान हैं तथा इसी प्रकार हानि भी छह प्रकारकी है। इनमें से अनन्त भागवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि इन दो स्थानोंके कम कर देनेपर चार स्थान होते हैं। इसी प्रकार सब मूल प्रकृतियों का और उनकी उत्तर प्रकृतियों के परिवर्तनका क्रम जानना चाहिए। यह सब मिलकर एकभावपरिवर्तन होता है। • बाल मरणाणि बहुसो बहुयाणि अकायमाणि मरणाणि । मरिहति ते वराया जे जिणवयणं ण जाणं ति ।। ||मूलाचार।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसालु पेवस्था दयादान के अभाव में संसार भ्रमण पुत्तकलत्त णिमित्तं अत्थं अज्जयदि पाप बुद्धीए । परिहरदि दयादाणं सो जीवो भमदि संसारे ||३०|| अन्वयार्थ: जीवो पुत्त कलत्तणिमित्तं पाप बुद्धीए अत्थं अज्जयदि दया दाणं परिहरदि सो संसारे भमदि अर्थ - - जो जीव पुत्र, स्त्री आदि के निमित्त पाप बुद्धि से धन का उपार्जन तो करता है तथा दया और दान को छोड़ता है वह संसार में घूमता है || ३ || भावार्थ- जो जीव पुत्र, स्त्री आदि कुटुम्बियों के निमित्त पाप बुद्धि ( मोह बुद्धि) से धन का उपार्जन तो करता है किंतु दया और दान को नही करता है इसे छोड़ता है। वह दीर्घ काल तक संसार में घूमता है। ४६ • घटिका जलधारेव गलत्यायुः स्थितद्द्रुतम् । शरीर मिदमत्यन्त पूतिगन्धि जुगुप्सितम् । ।।आ. पु.पर्व १७/१६।। आयु की स्थिति घटीयंत्र के जल की धारा के समान शीघ्रता के साथ गलती जा रही है कम होती जा रही है और यह शरीर अत्यंत दुर्गन्धित तथा घृणा उत्पन्न करने वाला है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દાદાબૂ પcરવા _____४७. धर्म बुद्धि छोड़ने वाला दीर्घ संसारी मम पुत्तं मम भज्जा मम धणधण्णोत्ति तिव्य कंखाए। चइऊण धम्मबुद्धिं पच्छा परिपडदि दीह संसारे ॥३१॥ अन्वयार्थ: धम्मबुद्धि चड़ऊण - जो जीव धर्म बुद्धि को छोटड़कर ऐसा मानता मम पुत्तं मम भज्जा तिव्व कंखए धणधण्णोति - ये मेरा पुत्र है। - ये मेरी भार्या है तथा - तीव्र इच्छा लोभ से युक्त होकर - ये धन धान्य आदि मेरा हैं - (वह) अन्त में - दीर्घ संसार में घूमता है ।।३।। पच्छा दीह संसारे परिपडदि भावार्थ- जो जीव धर्म बुद्धि को छोड़कर ऐसा मानता है कि ये मेरा पुत्र है, ये मेरे भाई हैं तथा तीव्र इच्छा/लोभ से युक्त होकर ऐसा मानता है कि मेरा गाय, बैल, भैंस आदि पशु धन हैं, ये मेरा गेहूं, चावल आदि धान्य है। वह अन्त में (मृत्यु के पश्चात्) दीर्घ संसार में घूमता है। • यौवनं बनवल्लीनामिव पुष्पं परिक्षयि। विषवल्लीनिभा भोग संपदो भनि जीवितम्।। आ.पु.पर्व १७/१५|| अर्थ- वन में पैदा हुई लताओं के पुष्यों के समान यह यौवन शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है, भोगसंपदाएं विषवेल के समान है और जीवन विनश्पर है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बारसागरला मिथ्या मान्यता से संसार भ्रमण मिच्छोदयेण जीवो जिंदंतो जोण्ह भासियं धम्मं । कुधम्म कुलिंग - कुतित्थं मण्णंतो भमदि संसारे ।।३।। यह गाथा मूलाचार में इस प्रकार है मिच्छत्तेणाछण्णो मग्गं जिनदेसिदं अपेक्खंतो। भमि हदि भीम कुडिल्ले जीवो संसार कंतारे ।।७०५|| अन्वयार्थ:मिच्छोदयेण जीवो जोह (जिण) भासियं धम्म णिंदतो कुधम्म कुलिंग कुतित्थं मण्णंतो संसारे भर्माद - जो जीव मिथ्याल्व कर्म के उदय से - जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुये - धर्म की - निंदा करता है तथा - कुधर्म, कुतीर्थ और कुलिंग को - मानता है (वह) - संसार में घूमता हैं ।।३२॥ भावार्थ- जो जीव मिथ्यात्व कर्म के उदय से जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित धर्म की निंदा करता है तथा कुधर्म, कुतीर्थ और कुलिंग को मानता है। वह संसार में धूमता है। • परनिन्दा प्रकुर्वन्ति गुणान् प्रच्छादयन्ति ये। ते मूढा श्वभ्रगा ज्ञेया भूरिपापवृता खलाः।। प्र. श्रा. २६७|| अर्थ- जो मनुष्य पर की निंदा करते रहते है और दूसरों के गुणों को ढकते रहते है । वे दुष्ट सबसे अधिक पापी है। उन मूवों को नरक में ही स्थान मिलता है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु वेक्खा अन्वयार्थ: मकारत्रय का सेवन संसार भ्रमण का कारण 'हंसूण जीवरासिं महुमंसं सेविऊण सुरपाणं । परदव्य परकलत्तं गहिऊण य भमदि संसारे ||३३|| जीवरासिं हंसूण महुमंसं सेविऊण सुरपाणं पद दव् य परकलत्तं गहिऊण संसारे भमदि - ४९ जो जीव अनेक प्रकार की जीव राशि की हिंसा करके जो मधु मांस सेवन करके और शराब की पीता है तथा दुसरों के पदार्थ (वस्तुओं) को तथा दूसरों की स्त्री को ग्रहण करता है ( वह) संसार में घूमता है ||३३|| भावार्थ- जो जीव अनेक प्रकार की जीव राशि की हिंसा करके प्राप्त मद्य (शराब), मांस/ अण्डे, मधु (शहद) का सेवन करके दूसरों के धन, धान्य आदि पदार्थों को ग्रहण करता है। छीनता है वह दीर्घ काल तक संसार में घूमता है। • रोरवादिषु घोरेषु विशन्ति पिशिताशनाः । तेष्वेव हि कदर्थ्यन्ते जन्तुघाट कृतोद्यमाः ।। || ज्ञानार्णव ८ / १७|| अर्थ- जो मांस के खालेवाले हैं वे सातवें नरक के रौरवादि बिलों में प्रवेश करते हैं। और वहीं पर जीवों को घात करने वाले शिकारी आदिक भी पीडित होते हैं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु पक्रया इन्द्रिय विषयों के कारण संसार में पतन जत्तेण कुणइ पावं विसयणिमित्तं च अणिसं जीवो। मोहंथयार सहिओ तेण दु परिपडदि संसारे ॥३४॥ अन्वयार्थ: जीवो मोहं धयार सहिओ विसयणिमिस अहणिसं जत्तेण पावं कुणइ तेणदु संसारे परिपर्बाद - यह जीव - मोहरूपी अंधकार से युक्त - पंचेन्द्रिय विषयों के निमित्त - अहर्निश दिन रात - बड़े प्रत्यन पूर्वक - पाप करता है - इसी से - संसार में पतित होता है गिरता है परिभ्रमण करता है ।।३४|| भावार्थ- यह जीव मोहरूपी अंधकार से युक्त होकर पांचों इंद्रियों के विषयों के लिए दिन रात बड़े प्रयत्न से पापों को करता है वह बुरी तरह से संसार में गिरता है/ डूबता है/ परिभ्रमण करता है। • चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसएसु। परपरिदावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि।। पंचास्किाय १४७|| अर्थ- बहुल प्रमादचर्या, चित्त की कलुषता, विषयों के प्रति लोलुपता, पर को परिताप देने का भाव और अपवाद वचन बोलना ये पाप का आस्रव कराते हैं। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु वेक्रवा अन्वयार्थ: - चौरासी लाख योनियों के भेद णिच्चिदर धातुसत्तय तरुदस वियलिंदियेसु छच्चेव । सुर णिरय तिरय चउरो चोदस मणुये सदसहस्सा ||३५|| णिच्चिदर श्रादु सत्त सद सहस्सा तदस सदसहस्सा वियलिंदियेसु छच्चेव सद सहस्सा सुर णिरण, तिरय घउरो सदसहस्सा मणुये चोदस सदसहस्सा - - · Ad - ५१ नित्य निगोद और इतर निगोद पृथवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक वायुकायिक, प्रत्येक की (७-७) सात-सात लाख प्रत्येक वनस्पति कायिक की दस लाख विकलेद्रिय अर्थात् दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय चार इन्द्रियों की प्रत्येक की दो-दो लाख इस तरह इन की छह लाख जातियां हुईं तथा देव, नारकी और तिर्यंचो की प्रत्येक की चार-चार ( ४-४ ) लाख एवं मनुष्यों की चौदह (१४) लाख जातियां इस प्रकार संसारी जीवों की (कुल मिलाकर) चौरासी लाख जातियां होती हैं ।। ३५ ।। भावार्थ- नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायु कायिक, इन सभी के सात-सात लाख तथा प्रत्येक वनस्पति कायिक के दस लाख दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय प्रत्येक के दो-दो लाखा देव नारकी, तिर्यंचों के चारचार लाख एवं मनुष्यों की चौदह लाख जातियां है। कुल मिलाकर चौरासी लाख येनियां होती हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारसाणवक्रवा संसार में सुख दुःख होते ही है संजोग विप्पजोगं लाहालाहं सुहं च दुक्सं च । संसारे भूदाणं होदि हु माणं तहावमाणं च ॥३६॥ यह गाथा मूलाधार में इस प्रकार हैसंजोग विप्पओगा लाहालाहं सुहं च दुक्खंच। संसारे अणुभूदा माणं च तहावमाणं च ।।७११॥ अन्वयार्थ:भूदाणं - जीवों को संसारे दु - संसार में नियम से संजोग विप्पजोगं - संयोग और वियोग लाह च अलाहं • लाभ और अलाभ सुहं च दुक्खं - सुख और दुख तहा माणं च अवमाणं ___ - तथा मान और अपमान होदि - होता है ।।३६|| भावार्थ- जीवों को संसार में नियम से संयोग और वियोग, लाभ और अलाभ, सुख और दुःख तथा मान और अपमान होता है। • अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः | नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतसः॥ समाधि तंत्र ३८|| अर्थ- जिसके चित्र का रागादिक रूप परिणमन होता है उसी के अपमानादिक होते है। जिसके चित्र का राग द्वेषादिरूप परिणमन नहीं होता उसके अपमान-तिरस्कारादि नहीं होते है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लारसाणुवस्था निश्चयनय से जीव का संसार भ्रमण नहीं कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसार घोर कंतारे । जीवस्स ण संसारो णिच्चयणय कम्म विम्मुक्को॥३७।। अन्वयार्थ: जीवो कम्म णिमिस घोर संसार कांतारे हिंडदि णिच्चयणय कम्म विम्मुक्को जीवस्स ण संसारो - संसारी जीव - कर्मों के निमित्त से • घनघोर संसार वन में - घूमता है किंतु - निश्चय नय से - कर्म से रहित - जीव के संसार नहीं होता है। वह तो संसार से रहित हैं/मुक्त हैं ऐसा जानना चाहिए ।।३७|| भावार्थ- संसारी जीव कर्मों के निमित्त से घनघोर संसार में घूमता है किंतु शुद्ध निश्चय नय से कर्म से रहित जीव के संसार नहीं होता। वह तो संसार से रहित मुक्त ही है। ऐसा जानना चाहिए। • नि:सारे खलु संसारे सुखलेशोपि दुर्लभः । दुःख मेव महत्-तस्मिन् सुखं काम्यति मन्दयी:।। |आ. पु. पर्व १७/१७|| अर्थ- इस असार संसार में सुख का लेश मात्र भी दुर्लभ है और दुःख बड़ा भारी है फिर भी आश्चर्य है कि मंदबुद्धि पुरुष उसमें सुख की इच्छा करते हैं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारसा गेयस्या हेयोपादेय जीव का कथन संसारमदिक्कतो जीवोवादेयमिदि विचिंतिज्जो। संसार दुहक्कंतो जीवोसो हेयमिदि विचिंतिजो॥३८॥ अन्वयार्थ: संसारं अदिक्कतो जीवो उवादेयं इदि विचिंतिज्जो संसार दुहक्कतो जीवो - संसार से अतिक्रांत अर्थात् मुक्त जीव - उपादेय है, ग्रहण करने के योग्य है। - ऐसे-चिंतन करने योग्य हैं किंतु - संसार के दुखों से आक्रात/युक्त जीव - हेय है, छोड़ने योग्य है। - ऐसा विचार करना चाहिए ।।३८।। हेयं इदि विचिंतिज्जो . भावार्थ- संसार से रहित मुक्त जीव उपादेय है, ध्यान आदि के द्वारा ध्येय है। चिंतन के योग्य होने से चिंतनीय हैं, किंतु संसार के दुःखों से युक्त संसारी जीव हेय हैं, छोड़ने योग्य हैं। ऐसा विचार करना चाहिए। • पातयन्ति भवावर्ते में त्वा ते नैव बान्धवाः। बन्धुता ते करिष्यन्ति हितमुद्दिश्य योगिनः॥ ||ज्ञा. आ.|| अर्ध- हे आत्मन्! जो तुझे संसार के चक्र में डालते हैं, वे तेरे बांधव ( हितैषी) नहीं है, किन्तु जो मुनिगण तेरे हित की वांछा कर के बंधुता करते हैं, अर्थात् हित का उपदेश करते हैं, स्वर्ग तथा मोक्ष का मार्ग बताते हैं, वे ही वास्तव में तेरे सच्चे और परम मित्र हैं। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु परया ६. लोक अनुप्रेक्षा लोक और उसके भेद जीवादि-पदव्याणं समवाओ सो णिरुच्चए लोगो। तिविहो हवेइ लोगो अधमज्झिम-उट्ट भेएण ॥३९॥ अन्वयार्थ: जीवादि पदव्याणं समवाओ - जो जीवादि पदार्थों का समवाय समूह है सो लोगो निरुच्चए - वह लोक शब्द से निरुक्त है अर्थात् उसे ___"लोक" कहते हैं। और वह लोक अधमज्झिम उट्ट भेएण - अधो मध्य और ऊर्ध्व के भेद से तिविहो हवेइ - तीन प्रकार का होता है ।।३९॥ भावार्थ- जो जीवादि पदार्थों का समवाय/ समूह हैं। वह लोक शब्द से निरुक्त हैं अर्थात उसे लोक' कहते हैं। और वह लोक अधो, मध्य और ऊर्ध्व के भेद से तीन प्रकार का होता है। • जइ पुण सुद्ध-सद्धावा सब्वे जीवा अणाइ-काले वि। तो तव-चरण-विहाणं सव्वेसि पिप्फलं होदि।। का. अनु. २००॥ अर्ध- यदि सब जीव सदा शुद्ध स्वभाव हैं तो सबका तपश्चरण करना निष्फल होता है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु वेवस्था अन्वयार्थ: - तीनों लोकों की संरचना रिया हवंति हेला मज्झे दीवंबुरासयोऽसंखा । सग्गो तिसटि भेओ एत्तो उड हवे मोक्खो ॥४०॥ हेट्टो णिरया हति मज्झे असंख दीव अंबुरासयो उड़ढे सग्गो तिसदिठभेओ मोक्खो हवे - ( लोक के) अधोलोक में नरक होते हैं। मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं ऊर्ध्व लोक में स्वर्ग सहित त्रेसठ पटलों के भेद हैं इसके आगे मोक्ष होता है अर्थात् सिद्धलोक 1180|| ५६ भावार्थ - अधोलोक में सात नरक होते हैं। मध्यलोक में असंख्यात् समुद्र होते हैं। ऊर्ध्व लोक में स्वर्ग सहित त्रेसठ पटलों के भेद हैं। इसके आगे मोक्ष अर्थात् सिद्धलोक है। • क्रूरता दण्डपारुण्यं वञ्चकत्वं कठोरता । निरित्रंशत्वं च लिङ्गानि रौद्रस्योक्तानि सूरिभिः ||३७| • अर्थ क्रूरता (द्रष्टता), दंडकी, वञ्चकता, कठोरता निर्दयता ये रौद्रध्यान के चिन्ह आचायौ ने कहे हैं।। • विस्फुलिनिभे नेत्रे भूवका भीषणाकृतिः । कम्पः स्वेदादिलिङ्गानि रौद्रे बाह्यानि देहिनाम् ||३८|| अर्थ- अग्रिके फुलिंग समान लाल नेत्र ही, भौंहो टेढ़ी हो, भयानक आकृति हो, देह में कंपन हो और पसीना हो इत्यादि रौद्रध्यान के बाह्य चिन्ह हैं। (ज्ञानार्णवा ) 1 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारसापूरसा स्वर्ग के ६३ पटल इगतीस सत्तचत्तारि दोणि एक्केक्क छक्क चदुकप्पे । तित्तिय एक्केकेदय णामा उडु आदि सट्टी ॥४२॥ अन्वयार्थ: इगतीस-सत्त चत्तारि ___ - इकतीस, सात, चार दोणि एक्क चदुकप्पे छक्क - दो, एक, एक, चार कल्पों में छ: तित्तिय एक्क एक्क उडुणामादि । - तीन-तीन के तीन तथा इसके आगे एक, एक पटल है इस प्रकार ऋजु आदि नामवाले तेसट्टी इंदय - त्रेसठ इंद्रक/पटल/विमान है। भावार्थ- ऊर्ध्व लोक में वेसळ पटल निम्न प्रकार है सौधर्म ऐशान स्वर्ग में इक्तीस पटल हैं। सानत कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में सात पटल ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर युगल में चार पटल हैं। लान्तव कापिष्ठ में दो पटल हैं शुक्र महाशुक्र युगल में एक पटल है। शतार-सहस्रार युगल में एक पटल है। आनत प्राणत, आरण अच्युत, इन दो युगलों में छ: पटल हैं अधो, मध्य और ऊर्ध्व, अवेयक में तीन तीन के तीन कुल नौ पटल है नव अनुदिश विमानों में एक पटल है। पांच अनुत्तरों में एक पटल है। इस प्रकार ऋजु आदि नाम वाले वेसठ इन्द्रक आदि पटल (विमान) हैं। • लवलोए कालोए अंतिम- जलहिम्मि जलयरो संति। सेस-समुद्देसु पुणो ण जलयरा संति णियमेण।। का. अनु. १४४।। अर्थ- लवणोद समुद्र में, कालोद समुद्र में और अंत के स्वयंभू रमण समुद्र में जलचर जीव है। किंतु शेष बीच के समद्रों में नियम से जलचर जीव नहीं हैं। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वारसाण करता उपयोगों का फल असुहेण णिरय-तिरियं, सुहउबजोगेण दिविस-पर-सोक्खं। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥४२॥ अन्वयार्थ: असुहेण णिरय तिरियं सुह उवजोगेण दिविज णर सोक्खं सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो - (यह जीव) अशुभ उपयोग से नरक तर्यच गति को - शुभोपयोग से - देव तथा मनुष्यों के सुखों को तथा • शुद्धोपयोग से मोक्ष को प्राप्त करता है . इस प्रकार लोक के स्वरूप का विचार करना चाहिए ।।४२|| भावार्थ- यह जीव अशुभोपयोग से नरक तिर्यंच गति के दु:खों को प्राप्त करता है तथा शुभोपयोग से देव तथा मनुष्यों के सुखों को एवं शुद्धोपयोग से मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार लोक के स्वरूप का निरंतर चिंतन करना चाहिए। • सव्वे कम्म-णिबद्धा संसरमाणा अणइ-कालम्हि । पच्छा तोडिय बंध सिद्धा सुद्धा धुवं हीति ।। का. अनु. २०२॥ अर्थ- सभी जीव अनादिकाल से कर्मों से बंधे हुए है इसी से संसार में भ्रमण करते हैं। | पीछे कर्म बंधन को तोड़कर जब निश्चल सिद्ध पद पाते हैं तब शुद्ध होते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाधु वखा अन्वयार्थ: ७. अशुचित्य - अनुप्रेक्षा शरीर की अशुचिता अट्टीहिं पडिबद्धं मंस विलितं तएण ओच्छण्णं । किमि संकुलेहिं भरियं अचोक्खं देहं सदाकालं ॥ ४३ ॥ यह गाथा मूलाचार में इस प्रकार है मंसडि सिंभव सरूहिर चम्म पित्तं तमुत्त कुणिप कुडिं । बहु दुक्ख रोग भायण सरीरमसुभं वियाणाहि ॥ ७२६ ॥ ३ अडीहिं पडिबद्धं मंसविलितं तएण ओच्छरणं किमि संकुलेहिं भरियं अचोक्खं देहं सदाकालं - - 4 - - जो हड्डियों से बंधा है । मांस से लिप्त है। ५९ त्वचा / चर्म से आच्छादित है। कृमियों के समूहों से भरा हुआ है ऐसे अपवित्र शरीर के विषय में हमेशा चिंतन करो ||४३|| भावार्थ- जो हड्डियों के बंधनों से बंधा हुआ है, मांस से लिप्त है, चमड़े से ढका हुआ है तथा कृमि (दो इन्द्रिय आदि जीवों) से जो भरा हुआ है। ऐसे अपने अपवित्र शरीर के विषय में निरंतर चिंतन करना चाहिए। • सुङ पवित्तं दव्वं सरस सुगंध मणोहरं जं पि । - देह - णिहित्तं जायद घिणावणं सुछु दुग्गंधं ॥ ॥का अ८४॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (बारसाणु पक्रवा ६० सड़न गलन शरीर का स्वभाव दुग्गधं बी भच्छं कलिमलमरिदं अचेयणं मुक्तं । सडणपडणसहावं देहं इदि चिंतए णिच्चं ॥४४|| शरीर सप्तघातुमय है रस रुहिर मंसमेट्ठी मज्जसकुलं मुप्तपूकिमिबहुलं । दुगंधमसुचि चम्ममयमणिच्चमचेयणं पडणं ॥४५|| अन्वयार्थ: अचेयणं देह दुग्गधं-बीभच्छं रस रुहिर मंस मेदट्ठी मज्ज मुत्त कलिमल भरिद चम्ममयं, मुत्तं दुग्गंध अचयेणं, अणिच्धं पडणं सड़णपडणसहावं - (हे जीव! यह) अचेतन शरीर - दुर्गधित है वीभत्स-घ्रणित हैं - रस रुधिर (खून) मांस, मेदा हड्डी - मज्जा मूत्र पीव इत्यादि - गंदे मलों से भरा हुआ है - चर्ममय है, मूर्तिक हैं - दुर्गघित है - अचेतन है अनित्य है - विनाशीक है - सड़ना (गलना) पड़षा (मृत्यु को प्राप्त होना) इसका स्वभाव है तथा यह - कृमि वहुल है अर्थात् इसमें कृमि आदि बहुत सारे जीव पाये जाते हैं - इस प्रकार अपवित्र शरीर का - हमेशा चिंतन करो।।४४-४५।। किमि बहुलं इदि असुचि देहं णिच्चं चिंतए Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणवस्या भावार्थ- हे जीव ! यह अचेतन शरीर, दुर्गंधित, घृणित हैं। रस रक्त माँस मेदा हड्डी, मज्जा, मूत्र पीव इत्यादि गंदे मलों से भरा हुआ है तथा यह चर्ममय हैं, मूर्तिक है, दुर्गंधित हैं, अचेतन व अनित्य है। सड़ना गलना और मृत्यु को प्राप्त होना इसका स्वभाव है। तथा यह बहुत सारे कृमि आदि जीवों से भरा हुआ हैं। अत: तू निरंतर इस अपवित्र शरीर के विषय में चिंतन कर उससे विरक्त हो। • अभिमतफल सिद्धेरभ्युपायः सुबोधः,. स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्ततू प्रसादात्मबुद्धिः न हि कृतमुपकार साधनो विस्मरन्ति ।। पंचास्तिकाय टीका।। अर्थ- अभिमत -इष्टफल की सिद्धि का सुन्दर उपाय सम्यग्ज्ञान है, वह सम्यग्ज्ञान सुशास्त्र से मिलता है, सुशाम्र की उत्पत्ति आप्त भगवान सर्वज्ञ (जिनेन्द्र) से होती है। इसलिए आप्त पूज्य है, क्योंक आप्त की कृपा से पुरुषों की बुद्धि पूज्य हो जाती है। तथा साधु सज्जन पुरुष तो उपकारी द्वारा अपना किया हुआ उपकार वास्तव में कभी भूलते ही नहीं हैं। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (વારસાબુ પરવા देहातीत आत्मा की शुद्धता का चिंतन देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदिणिच्चं भाषणं कुज्जा।।४६॥ अन्वयार्थ: कम्म रहिओ देहादो वदिरित्तो अणंत सुरुणिलयो चोक्खो अप्पा हवेइ इदि णिच्चं भावणं कुज्जा - कर्म से रहित और - शरीरादि से रहित - अनंत सुख का निलय स्वरूप - सच्ची आत्मा होती है - ऐसी हमेशा - भावना करो।॥४६॥ भावार्थ- ज्ञानावरणादि आठ द्रव्य कर्म रागद्वेष आदि भाव कर्म तथा शरीर आदि नोकर्म से रहित, अनंत सुख का घर हमारी सच्ची आत्माहोती है। ऐसा हमेशा चिंतन करना चाहिए। NP • जो पर-देह विरत्तो णिम-देहे ण य करेदि अणुरायं । अप्प-सरूव सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स ।। का. अनु. ८७|| अर्थ- जो दूसरों के शरीर से विरक्त है और अपने शरीर से अनुराग नहीं करता है, तथा आत्मा के शुद्ध चिद्रूप में लीन रहता है उसी की अशुचित्व में भावना हैं। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (વારસાબુ જેવા ८. आस्रव अनुप्रेक्षा कमान के कारण मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होति । पण पण चउ तिय भेदासम्म परिकित्तिदा समये।।४७|| यह गाथा मूलाचार में इस प्रकार हैमिच्छत्ता विरदीहिं य कसाय जोगेहिं जं च आसवदि । दंसण विरमणणिग्गहणिरोधणेहिं तु णासवदि ।।७४४॥ अन्वयार्थ:पण मिच्छत्तं - पांच मिथ्यात्व पण अविरमणं - पांच अविरति चड़ कसाय य - चार कषाय और तिय भेदा जोगा - तीस प्रकारके योगों से आसवा होर्ति - आम्रव होता है ऐसा समये - आगम ! शास्त्रों में सम्म परिकित्तिदा - अच्छी तरह से कहा गया है ।।४७|| भावार्थ- पांच प्रकार के मिथ्यात्व, पांच प्रकार के अविरत, चार प्रकार की कपायें तथा तीन प्रकार के योग ये सत्रह कर्मों के आम्रव के हेतु हैं। ऐसा जिनागम (शास्त्रों) में अच्छी तरह से कहा गया है। • आसन्नभव्यता कर्महानिसंजित्वशुद्ध परिणामा:। सम्यक्वहेतुरन्तर्बाह्य उपदेशकादिश्च ।। |उमास्वामि-श्रावका ।।.२३|| - - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पैयखा अन्वयार्थ: मिथ्यात्व और अविरति के भेद एयंत विणय विवरिय संसयमण्णाण मिदि हवे पंच । अविरमणं हिंसाठी पंचविहो सो हषइ नियमेण ॥ ४८॥ एयंत विणय विवरिय संसय अण्णाणं इदि पंच हवे णियमेण हिंसादी पंच विहो सो अविरमणं हव - - 4 · - एकांत, विनय, विपरीत संशय और अज्ञान भावार्थ एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान इस तरह से थे पांच प्रकार का मिथ्यात्व हैं। तथा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, एवं परिग्रह ये पांच प्रकार के अविरत हैं । ૬૪ इस तरह ये पांच प्रकार के मिध्यात्व हैं और नियम से हिंसादि पांच प्रकार के वे अविरत होते हैं ॥ ४८ ॥ 'दुर्जनस्य च सर्पस्य समता तु विशेषतः । छिद्राभिलषिता नित्यं द्विजिह्वं पृष्ठि भक्षणम् ।। ॥भः व्यधर्मोपदेश उपासकाध्यन ||२३|| अर्थ- दुर्जन पुरुष की और सर्प की विशेष रूपसे समानता है। दोनों ही सदा छिद्रों के (साँप बिल के और दुर्जन दोषों के) अभिलाषी होते है दो जिह्नवा वाले हैं और पीठ पीछे अक्षण करते हैं। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु वेक्वा कषाय और योग के भेद कोहे माणो किरा पण वचकायेण पुणो जोगो तिवियप्पमिदि जाणे ॥४९॥ यह गाथा मूलाचार में इस प्रकार है कोहो माणो लोभो य दुरासय कसायरिक दोस सहस्सावासा दुक्ख सहस्साणि पावंति || ७३७।। अन्वयार्थः कोहो माणो माया य लोहा चउवि कसायं पुणो मण वच कायेण जोगो विवियपं इदि जाणे - - - - क्रोध, मान, माया और लोभ ये नियम से चार प्रकार की कषाय हैं। और मन, वचन, काय के भेद से योग तीन प्रकार का है ऐसा जानो ।।४९ ॥ ६५ भावार्थ- क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार प्रकारकी कषायें हैं और मन, वचन तथा काय के भेद से तीन प्रकार का योग है। ऐसा जानना चाहिए। • जीवन में संत दर्शन तो बहुत होते है, लेकिन दर्शन के उपरान्त जो हृदय में समर्पण का भाव पैदा होता है, भक्ति का भाव जगता है, तीव्र लालसा उत्पन्न होती है, वही वास्तव में दर्शन है, शेष तो मात्र कोरा प्रदर्शन है। ॥आ. श्री विराग सागर जी ।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाराणवस्या ६६ योग के शुभाशुभ भेद असुहेदर भेदेण दु एक्केक्कं वण्णिदं हवे दुविहं । आहारादी सपणा असुहमणं इदि विजाणेहि॥५०॥ । अन्वयार्थ: एक्केक्कं असुहेदर भेदेण . दुविहं हवे वण्णिदं आहारादी सण्णा असुहमणं इदि विजाणेहि - अथवा - प्रत्येक - अशुभ और शुभ के - भेद से - दो-दो प्रकार के होते हैं ऐसा - आगम में कहा है तथा - आहार आदि संज्ञा से युक्त मन - अशुभ मन है - ऐसा जानो ॥५०॥ भावार्थ- अथवा प्रत्येक योग के शुभ और अशुभ के भेद से दो-दो भेद हैं। अर्थात् शुभमन और अशुभमन/शुभ वचन और अशुभ वचन, शुभकाय और अशुभकाय ऐसा आगम शास्त्रों में कहा गया हैं। इनमें आहार, भय, मैथुन परिग्रह रूप संज्ञाओं से युक्त मन अशुभ मन है। ऐसा जानना चाहिए। • संत के दर्शन करने के बाद अंतरंग में जो पुन: दर्शन की अभिलाषा, भावना, सागर की तरह हिलोरें लेने लगती है, वास्तव में अंतरंग की वही अंतहीन भक्ति मुक्ति की परिचायक है। |आचार्य श्री विराग सागर जी। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु क्वा अशुभ भाव ही अशुभ मन है किण्हादि तिण्णिलेस्सा करणजसोक्खेसु गिद्ध परिणामो । ईसा विसादभावो असुहमणं तिय जिणावेंति ।।५१|| अन्वयार्थ: किण्हादि तिणिलेस्सा करणजय सोक्सु गिद्धि परिणामो ईसा य विसाद भावो असुहमणं त्ति जिणावेति अन्वयार्थ: - 4 - रागो दोसो मोहो हास्सादि णोकसाय थूलो मुहुमो असुहमणो वेति - - भावार्थ- कृष्णा, नील, कापोत ये तीन अशुभ लेश्यएं, इंद्रियों से उत्पन्न सुखों में आसक्ति रूप परिणाम, ईर्षा और विषाद रूप भाव अशुभ मन है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। कषाय नोकषाय रूप परिणाम अशुभ मन है रागो दोसरे मोहो, हास्सादि णोकसायपरिणामो । थूलो वा सुमो वा असुहमणो तिये जिणा वेति ॥ ५शा 3 - कृष्णा आदि तीन अशुभ लेश्यायें इंद्रियों से उत्पन्न सुखों में गिद्धि / आसक्ति रूप परिणाम ईर्षा और विषाद रूप भाव अशुभ मन है ऐसा जिनेंद्र भगवान कहते हैं ॥५१॥ - ६७ राग द्वेष मोह, हास्य आदि भो कषाय स्थूल सूक्ष्म अशुभ मन कहना भावार्थ- सभी प्रकार के स्थूल व सूक्ष्म राग द्वेष, मोह, हास्य आदि नो कषाय रूप परिणाम को जिनेन्द्र भगवान ने अशुभ मन कहा हैं। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु पैक्रवा अशुभ्र वचन और अशुभ काय भित्तित्थिराय चोर कहा ओ वयणं वियाण असुहमिदि । बंधण छेदण मारण किरिया सा असुह-कायेत्ति ॥५३॥ अन्वयार्थ: भित्तित्थिरायचोर कहाओ इदि असुह वयणं अंधण छेदण मारण किरिया सा असुह कात्ति वियाण - - - भक्त कथा, स्त्री कथा, राज कथा, रूप वचन इस प्रकार से अशुभ वचन है तथा तथा बांधना, मारना, छेदना इत्यादि क्रिया वह अशुभ काय है ऐसा जानो ॥५३॥ ६८ • वालता प्रकृतिर्यस्य तस्य कुण्ठा मतिर्भवेत् । पित्तला प्रकृतिर्यस्य तस्य तीव्रामतिर्भवेत् ॥ ॥ व्रतोद्योतन श्रावका || २०६|| चोर कथा भावार्थ - भोजन कथा, स्त्री कथा, राजकथा, चोर कथा इन चार विकथ रूप वचन अशुभ वचन है। तथा बांधना, मारना, छेदना, इत्यादि क्रिया करना अशुभ काय है। ऐसा जानना चाहिए। अर्थ - जिस पुरुष की वायु प्रधान प्रकृति होती है, उसकी बुद्धि कुण्ठित होती है तथा जिस पुरुष की प्रकृति पित्त प्रधान होती है, उसकी बुद्धि तीव्र होती है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेरा ६९ व्रत समिति रूप शुभ परिणाम शुभ मन है अत्तण असुहभावं पुष्वुत्तं शिरवसेसदो दव्यं । वद-समिदि सील संजम परिणामं सुहमणं जाणे ॥५४॥ अन्वयार्थ: पुवुत्तं दध्वं असुह भावं णिरवसेसदो मोत्तूण बद समिदि सील संजम परिणाम सुह मणं जाणे - पूर्वोक्तद्रव्य और - अशुभ भावों को - पूर्णत: छोड़कर - व्रत समिति शील और - संयम रूप परिणामों का होना .. - शुभ मन है ऐसा जानो ॥५४|| भावार्थ- पूर्वोक्त आम्रव बंध में कारण भूत द्रव्य एवं भावों को पूर्णतः छोड़कर व्रत, समिति, शील और संयम रूप परिणाम को शुभ मन जानना चाहिए । • रयण-त्तय-जुत्ताणं अणुक्लं जो चरेदि भत्तीए। भिच्चो जह रायांण उवयारो सो हवे विणओ।। का, अ. ४५८।। अर्थ- जैसे सेवक राजा के अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र धारक मुनियों के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पेपरया शुभ वचन और शुभ काय का कथन संसार छेद कारण वयणं, सुहवयणमिदि जिणुद्दिठें। जिणदेवादिसुपूजा सुहकार्य लिय हवे चेट्ठा ॥५५॥ अन्वयार्थ: संसार छेद कारणं वयणं सुहवयणं इदि जिणदेवादिसु पूजा य घेट्ठा हवे सुहकायं ति जिणुदिटुं - संसार विच्छेद के कारण - वचन शुभवचन है। .. - जिनेन्द्र देव आदि की सच्ची पूजा रूप - जो चेष्टा है। - शुभ काय है ऐसा - जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।।५५॥ भावार्थ- संसार परिभ्रमण को विच्छेद करने में कारण भूत वचन शुभवचन है तथा जिनेन्द्र देव आदि की सच्ची पूजा रूप जो चेष्टा है वह शुभ काय है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। • पूर्वाहणे हरते पापं मध्याह्ने कुरुते श्रियम् । ददाति मोक्षं सन्ध्यायां जिनपूजा निरन्तरम् ।। ||उमास्वामि श्रा. १८१|| अर्थ- निरन्तर प्रभात में की गई जिनपूजा पाप को दूर करती है, मध्याह्न में की गई जिनपूजा लक्ष्मी (अंतरंग लक्षमी) को करती है और संध्या काल में की गई जिनपूजा मोक्ष को देती है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [नारसाष्णु वेवस्था अन्वयार्थ: संसार - परिभ्रमण कर्मास्रव के कारण जम्मसंमुद्दे बहुदोसवीचिये दुक्खजलचराकिण्णे | जीवस्स परिम्भरणं कम्मासवकारणं होदि ॥५६॥ दुक्खजलचराकिण्णे बहुदोसवीचिये जम्मसमुद्दे जीवस्स परिब्भमणं कारणं कम्मासवकारणं होदि - " - 4x - दुख रूपी जलचरों से भरे हुए बहुत दोष रूपी तरंगों से जन्म मरण रूप संसार समुद्र में जो जीव का परिभ्रमण हो रहा है। युक्त इस का मूल कारण कर्मों का आम्रव है ||५६|| • देवहं सुत्थहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ । त्रिमें पाउ हवे तसु जे संसारू भमेइ || |प.प्र.२ / ६२ ।। भावार्थ- दुख रूपी जलचर (मगरमच्छों से भरे हुए, बहुत दोषों रूपी तरंगो से युक्त जन्म मरण रूप महा समुद्र में जो जीव का परिभ्रमण हो रहा है। उसका मुल कारण एक मात्र कर्मों का आसव है । ७१ अर्थ- वीतरागदेव, जिनसूत्र और निग्रंथ मुनियों से जो जीव द्वेष करता है, उसके निश्चय से पाप होता है, जिस पाप के कारण से वह जीव संसार में भ्रमण करता है अर्थात् परम्पराय मोक्ष के कारण और साक्षात् पुण्यबंध के ब- शास्त्र गुरू है, इनकी जो निंदा करता है उसे कारण जो देव -: नियम सेपाप होता है, पाप से दुर्गति में भटकता है । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पक्रया ७२ ज्ञानपूर्वक क्रिया मोक्ष का कारण कम्मासवेण जीवो बूढदि संसारसायरे घोरे । जंणाणवसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया।।५७।। अन्वयार्थ: जीवो कम्मासवेण . घोरे संसारसायरे बूडदि जंणाणवसं किरिया परंपरया मोक्खणिमित्त - जय जीव - कर्मों के आम्रव से - घोर संसार सागर में - डूबता है - जो सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वक क्रिया है - वह परंपरा से - मोक्ष का निमित्त कारण है ॥५७|| भावार्थ- यह जीव कर्मों के आम्रव से घोर संसार सागर में डूबता है। किंतु जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पूर्वक होने वाली जो सम्यक् शुभ क्रिया (आचरण) है वही परपंरा से मोक्ष का निमित्त कारण है। • ये वदन्ति स्वयं स्वस्य गुणान् दोषान् पुनर्नच । गर्दभादि कुयोनि ते श्वभ्रं वा यान्ति दुर्द्धियः ।। ||प्रश्नोत्तर श्रावका.॥ अर्थ- जो मूर्ख अपने गुणों को अपने आप कहते फिरते है और अपने दोषों को कभी प्रगट नहीं करते वे गधे आदि कुयोनियों में जन्म लेते है अथवा नरक में जाकर दुःख भोगते हैं। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारसायरवा आसव मोक्ष का साक्षात कारण नहीं आसव देहू जीवो जम्मसमुद्दे णिमज्जदे खिप्पं । आवसकिरिया तम्हा मोक्ख णिमित्तंण चिंतेम्जो॥५८|| अन्वयार्थ: जीवो आसव हेदू खिप्पं जम्मसमुद्दे णिमन्जदे आसकिरिया तम्हा मोक्ख णिमित्तं चिंतेज्जो - यह जीव - आस्रव के कारण - शीघ्र ही - जन्म (मरण) रूप समुद्र में - डूबता है - आस्रव रूप क्रिया • मोक्ष का (साक्षात) निमित्त कारण नहीं है। - ऐसा चिंतन करो॥५८|| भावार्थ- यह जीव आम्रव के कारण ही जन्म, मरण रूप संसार में डूबता है । अत: शुभ आस्रव रूप क्रिया मोक्ष का साक्षात निमित्त कारण नहीं है। ऐसा जानना चाहिए। •रागो जस्स पसत्थो अणुकंपा संसिदो य परिणामो। चित्तम्हि णस्थि कलुस पुण्ण जीवस्स आसवदि ।। |पंचास्किाय ४३|| अर्थ- जिस जीव के प्रशस्त राग है, अनुकम्पा सहित परिणाम हैं और चित्त कलुषता रहित है उस जीव को पुण्य का आसव होता है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.--.-.-. बार - ७४ पराम्परा से भी आस्रव से मोक्ष नहीं पारंपज्जाएण दु आसकिरियाए णस्थिणिव्वाणं । संसार गमण कारणमिदि जिंदं आसवो जाण ॥५१॥ अन्वयार्थ: आसव किरियाए पारंपज्जाएण दु णिष्वाणं णस्थि संसार गमण कारणं - आम्रव रूप किरिया से। - परंपरा से भी - निर्वाण नहीं होता है। - वह तो संसार में गमन करने का कारण है। इसलिए - आम्रव को निदनीय जानो ।।५९|| आसवो जिंदं जाण भावार्थ- निश्चय नय से शुभ आम्रव रूप क्रिया से परपरा से भी निर्वाण या मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। क्योंकि वह संसार गमन में कारण है इसलिए निश्चय नय से आम्रव को निदनीय कहा है। • सपणाओ यतिलेस्सा इंदियवसदाय अट्टाहाणि । णाणं च दुप्पउत्त मोहो पावप्पदो होदि ।।१४८।। पांचास्तिकाय। अर्थ- चारों संज्ञाये, तीन अशुभलेशयाएं, इन्द्रिओं की अधीनता, अर्ति-रौद् ध्यान, अशुभ कार्यों में लगा हुआ ज्ञान और मोह (मिथ्यात्व) ये पापरूप मोहनीय कर्म के आस्रव के कारण है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु पैलवा अन्वयार्थः निश्चय से आत्मा के कर्मास्रव नहीं पुवृत्तास भेंदा णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स । उहयासवणिम्मुक्कं अप्पाणं चिंतए णिच्चं ॥ ६० ॥ पुवुत्त आसव भेदा णिच्छय णयएण जीवस्स णत्थि अप्पाणं णिच्चं उयासव जिम्मुक्कं चिंतए L - 17 AR - - पूर्वोक्त आम्रवों के भेद निश्चय नय से ७५ जीव के नहीं है इसलिए, आत्मा को हमेशा ( द्रव्य भाव रूप) दोनों प्रकार के आसन से रहित चिंतन करो । भावार्थ- पहले कहे हुये आम्रव के भेद निश्चय नय से जीव के नहीं है। इसलिए आत्मा हमेशा द्रव्याम्रव और भावाभ्रव से रहित चिंतन करना चाहिए। • मुक्तिरेकान्तिकी तस्य चित्ते यस्याचला धृतिः । तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः || ७१ ॥। अर्थ- जिस पुरुष में चित्त में आत्मस्वरूप की निश्चल धारण है उसकी नियम से मुक्ति होती है। जिस पुरुष की आत्म स्वरूप में निश्चल धारणा नही है उसकी अवश्यक भाविनी मुक्ति नही होती है। ( समाधितंत्र) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारसाणु पेपरवा ९. संवर अनुप्रेक्षा मिथ्यात्व का निरोधक सम्यक्त्य चलमलिन मगाद च वज्जिय सम्मत्त दिढकवाडेण । मिच्छत्तासव दार गिरोहो होदित्ति जिणेहिं णिदिटुं ॥६॥ अन्वयार्थ: जाल मालिनं च अगाढ वज्जिय सम्मत्त दिढ कवाडेण - चल मलिन और आगाढ़ दोषों से - रहित - सम्यक्त्व रूपी दृढ़ कपाटों (कपाटो/ दरवाजों) से - मिथ्यात्व के आम्रव द्वार का - निरोध संवर होता है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।।६१|| मिच्छत्तासवदार णिरोहो होदि ति जिणेहि णिद्दिट्ट भावार्थ- जिस प्रकार कोट में बाह्य मजबूत द्वारों को बंद कर देने से शत्रु सेना का प्रवेश नहीं हो पाता है ठीक इसी तरह चल मलिन अगाढ़ दोषों से रहित क्षायिक (सुदृढ़) सम्यक्त्व रूपी द्वारों को बंद कर देने से मिथ्यात्व का प्रवेश रुक जाता है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं। • सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं। मोक्खस्स हदि मग्गो भव्वाणं लद्धबुद्धीणं ।।७१॥ (पंचास्किाय ११३) अर्थ- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सहित व राग द्वेष रहित चारित्र रूप मोक्ष का मार्ग लब्धबुद्धि आत्मा ज्ञानी भेदविज्ञान की कला प्राप्त भव्य जीवों को प्राप्त होता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wારસાઇ आस्रव द्वार के निरोधक हेतु पंच महव्वय मणसा अविरमणं णिरोहणं हवे णियमा। कोहादि आसवाणं दाराणि कसायरहिय पल्लगेहिं ।।२।। अन्वयार्थ:पंच महव्वय मणसा • पंच महाव्रत युक्त मन से अर्थात् भाव सहित धारण किये गये पांच महाव्रतों से णियमा अविरमर्ण - नियम से अविरतों का णिरोहो हवे - निरोध हो जाता है और कोहादि आसवाणं (णिरोहणं) - क्रोधादि कषाय से होने वाला आम्रव का निरोध कषाय रहिय दाराणि पल्लगेहिं - कषाय रहित अर्थात् अकषाय रूप द्वारों के बंद हो जाने से होता है ।।६२।। भावार्थ- अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत. ब्रह्मचर्य महाव्रत तथा अपरिग्रह महाव्रत इन पांच महाव्रतों को धारण करने से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह रूप अविरतों (पापों) का निरोध हो जाता है अर्थात् अविरति से होने वाला आम्रव रुक जाता है तथा क्रोध, मान, माया लोभ कषाय से होने वाला आसव अकषाय भाव अर्थात क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच स्वभाव रूप सुदृढ़ द्वारों के बंद हो जाने से रुक जाता है। • सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं । चारित्तं समभावो विसयेसु विरुढग्गाणं।। (पंचास्किाय ११५) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बारसायरवा अशुभ और शुभ उपयोग के निरोधक हेतु सुहजोगस्स पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुह जोगस्स णिरोहो सुद्धव जोगेण संभवदि ॥१३॥ अन्वयार्थ: सुहजोगस्स पवित्ती असुह जोगस्स संवरणं कुणदि सुहजीस्स गिरोहो सुद्धव जोगेण संभवदि - शुभयोग की प्रवृत्ति - अशुभ योग का संवर करती है और - शुभ योग ज्ञानिय संवर) . शुद्धोपयोग से संभव है ।।६३॥ भावार्थ- शुभमन वचन काय रूप योगों से अशुभ मन, वचन, काय रूप योगों का अथवा इनसे होने वाला आम्रव रुक जाता है। अर्थात् अशुभ योग से होने वाला आस्रव का संवर हो जाता है। तथा शुभयोगों से होने वाला आम्रव का निरोध (संवर) शुद्धोपयोग से ही संभव है। • भरहे दुस्समकाले धम्मज्याणं हवेइ णाणिस्स। तं अप्पसहाठिदे ण हु मण्णदि सो वि अण्णाणी॥ • अज्जवि तिरग्रणसुद्धा अप्पा झाइवि इंदत्तं । लोयंतिय देवत्तं तत्थ चुदा णिव्बुदि अंति ।। (मोक्ष, पा. ७६-७७) अर्थ- भरत क्षेत्र में पंचमकाल में ज्ञानी जीवों को धर्मध्यान होता है। जो कोई आत्मस्वभाव में स्थित जीव उसे नहीं मानता है वह अज्ञानी है। आज भी इसी पंचमकाल में रत्नत्रय (तीनरत्नों) से शुद्ध (सहित) मुनि आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपद और लौकान्तिक देव पद प्राप्त करते है। वहाँ से च्युत होकर मनुष्य होकर मोक्षपदपाते है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसागुपदरता ध्यान और संवर का कारण सुद्भुषजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं य होदि जीवस्स। तम्हा संवर हेदू इराणोत्ति विचिंतए णिच्च ।।६४।। अन्वयार्थ: जीवस्स जोगेण धम्मं य सुक्कं - जीव को - शुद्धोपयोग से - आध्यात्मिक या निश्चय धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान - इसलिये संवर का हेतु मुख्य कारण ध्यान तम्हा संवर हेदू झाणोत्ति णिच्चं विचिंतए - इस प्रकार हमेशा विचार करना चाहिए ॥६४| भावार्थ- रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का व्याख्यान शास्त्रों में आगम पद्धति (भाषा) व आध्यात्म पद्धति (भाषा) से किया गया है। आगम भाषा भेद रत्नत्रय की मुख्यता से कथन करता है। भेद व अभेद दोनों प्रकार के रत्नत्रय एक मात्र निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि के ही पाये जाते हैं। अन्य लोगों के नहीं। इन दोनों में कारण और कार्य का अंतर है। भेद रत्नत्रय कारण है अभेद रत्नत्रय कार्य है। भेद रत्नत्रय छट्टे गुणस्थान में होता है और अभेद रत्नत्रय सातवें से उपरिम गुण स्थानों में होता है। सातवें गुणस्थान के दो भेद हैं । स्वस्थानाप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त । स्वस्थानाप्रमत्त प्राय: सभी मुनिराजों को बनता रहता है किंतु सातिशय अप्रमत्त एक मात्र श्रेणी के सम्मुख मुनिराजों को ही होता है। आध्यात्मिक शास्त्रों में चौथे से सातवे गुणस्थान तक के जीव धर्म ध्यान के स्वामी कहे गये हैं। इसके आगे एक मात्र शुक्ल ध्यान के ही पाये (प्रभेद) क्रमश: पाये जाते हैं। छट्टे गुणस्थान तक जीव के परिणाम Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पेपरवा बुद्धिपूर्वक विकल्प से युक्त होने के कारण सविकल्प होते हैं और इसके आगे सातवें आदि गुणस्थानों में निर्विकल्प होते हैं । अत: यह बात स्वत: सिद्ध हो जाती है कि सविकल्प अवस्था छठे गुणस्थान तक पाया जाने वाला धर्म ध्यान सविकल्प धर्मध्यान है। और इसके आगे सातवें गुणस्थान में पाया जाने वाला धर्म ध्यान निर्विकल्प धर्म ध्यान है। इसे ही निर्विकल्प समाधि व शुद्धोपयोग आदि कहा है। अत: शुद्धोपयोग से सप्तम गुणस्थान में निर्विकल्प धर्मध्यान होता है और इससे ही आगे आठवें आदि गुणस्थानों में शुक्ल ध्यान होता है। तथा इसके आगे ग्यारहवें आदि गुणस्थान में शुद्धोपयोग से ही शुक्ल ध्यान होता है। ___ किन्हीं - किन्हीं आवाओं ने शुद्धोपयोग को शुक्ल ध्यान को अविनाभावी माना है। उनके अनुसार वहां यथाक्रम से शुद्धोपयोग से शुक्ल ध्यान जानना चाहिए ।।६४।। • सुद-परिचिदाणुभूया सब्वस्स वि कामभोगबंधकहा ! एयत्तस्सुवलंमो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।। (स. पा. ४) • सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि । सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि || (सूत्र पा. ३) •खपुष्पमथवा श्रृङ्ग खरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देश कालेऽपि ध्यान सिद्धिगुहाश्रमे।। (ज्ञानार्णव ४/१७) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11रामुपवरचा निश्चय से आत्मा संघरहित जीवम्स ण संवरणं परमट्ठणएण शुद्धभावादो। संबरभाव विमुक्कं अप्पाणं चिंतए णिच्चं ॥६५|| अन्वयार्थ: परमट्टणएण जीवस्स शुद्ध भावादो संघरणं संवरभाव विमुक्कं - परमार्थ नय अर्थात् शुद्ध निश्चय नय से. • जोत्र का शुद्ध भाव भी - (अपनी) आत्मा संवर भाव से रहित है ऐसा - हमेशा - विचार करना चाहिए ॥६५॥ णिचं चिंतए भावार्थ- शुद्ध निश्चय नय वस्तु के शुद्ध स्वभाव की मुख्यता से कथन करता है, इस नय से स्नव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि आत्मा के स्वभाव है ही नहीं तो वह उसका कर्ता कैसे हो सकता है। अर्थात् इस नय से आत्मा संवर भाव से रहित हैं । ऐसा हमेशा विचार करना चाहिए। • विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदोतध्वं । विश्ला भावहितच्चं विरलागं धारणा होदि ।। (का. अ. २७९) अर्थ- जगत में विग्ले मनुष्य ही तत्त्व को सुनते हैं | सुनने वालों में से विरले मनुष्य ही तत्व को ठीक-ठीक जानते हैं। जाननेवालों में से भी विरले मनुष्य ही तन्त्र की भावना सतत अभ्यास करते हैं और सतत अभ्यास करने वालों में से तत्त्व की धारणा विरले मनुष्यों को ही होती है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पेमरवा ८२ १०. निर्जरा अनुप्रेक्षा जिस कारण से संतर उसी से निर्जरा भी बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं । जेण हवे संवरणं तेण दुणिज्जरणमिदि जाण ॥६६॥ अन्वयार्थ: बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं जेण संवरणं हो - पूर्वबद्ध कर्मों का गलना . - निर्जरा कहलाती है तथा - जिन भावों से संवर होता है अथवा जो संवर के कारण है - उन्ही भावों से निर्जरा भी होती है - ऐसा जानो • इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । तेण दुणिज्जरणं इदि जाण इदि जिणेहि ॥६६॥ भावार्थ- पूर्व बद्ध कर्मों का तप आदि के द्वारा निर्जीण होना निर्जरा कहलाती है । जिन भावों या कारणों से संवर होता है उन्हीं भावों से निर्जरा भी होती है। यही बात तत्त्वार्थ सूत्र में भी कही है। गधा - "तपसा निर्जरा च" अर्थात् - सम्यक्तप से निर्जरा भी होती है और संवर भी होता है । • कुसलस्स तवो णिवुणस्स संजमो सम्मपरस्सवेरगो। सुदभावेण तत्तिय तह्म सुदभावणं कुणह ।।१५१।। (र. सा.) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : वारसाणु वेवस्था अन्वयार्थ: - निर्जरा के सविपाक अविपाक भेद सा पुण दुविहा पोया सकाल पक्का तवेण कयमाणा । चदुगदियाणं पदमा व जुत्ताणं हवे विदिया ॥६७॥ यह गाथा मुलाचार में इस प्रकार है रुद्धासवस्स एवं नवसा जुत्तस्स विज्जरा होदि । दुविहाय विभणि देशादी सम्बद केव ॥७४६क्षा सा दुविहा सकाल पक्कापुण तवेण (पत्ता) कयमाणा पढमा चाहुगन्द्रियाणं - - - - ८३ वह निर्जरा दो प्रकार की है स्वकाल प्राप्त और तप के द्वारा प्राप्त पहली निर्जरा चारों गतियों के जीवों के होती है विदिया वय जुत्ताणं भावार्थ - निर्जरा के मुख्य दो भेद हैं । 1. सविपाक निर्जरा 2. अविपाक निर्जरा अपने-अपने समय में आम्रव पूर्वक कर्मों का निर्जीण होने को सविपाक निर्जरा कहते हैं। जो कि चारों गतियों के जीवों के निरंतर होती रहती है। तथा दूसरी निर्जरा समय के पूर्व तप आदि के द्वारा संबर पूर्वक होती है। उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं। यह व्रतो जीवों के ही होती है । और दूसरी निर्जरा । व्रतों से युक्त जीवों के होती है ॥६७॥ गाण आण सिद्धि झाणादो सव्व क्रम्म णिज्जगणं । शिज्जण फलं मोक्खं गाणलभा तदो कुज्जा | (र. सा. १५०) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ११.धर्म अनुप्रेक्षा श्रावक और मुनि धर्म के भेद एयारस दस भेदं धर्म सम्मत्त पुव्वयं भणियं । सागार-णागाराणां उत्तम सुह संपजुत्तेहि ॥६८।। अन्वयार्थ: सम्मत्त पुष्वयं एयारस - सम्यक्त्व पूर्वक ग्यारह प्रतिमा रूप सागार • St. और दस भेद - दस भेद से युक्त णगाराणां - गृह रहित अनगारों का धम्म - धर्म है ऐसा उत्तम सुह संपजुत्तेहि - उत्तम सुख से सम्पन्न भणियं - जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ||६८|| अर्थ- जिनेन्द्र भगवान ने चरणानुयोग की अपेक्षा धर्म के मुख्य दो भेद कहे हैं। पहला श्रावक धर्म इसके दर्शन प्रतिमा आदि ग्यारह भेद हैं। दूसरा मुनि धर्म इसके उत्तम क्षमादि दस भेद हैं। • इस दुलह मणुयत्तं लहिऊणं जे स्मंत्ति विसएसु । ते लहिय दिव्व-रयणं भूइ णिमित्तं पजालति ।। (का. अनु. ३००) अर्थ- दर्लभ मनुश्य - पर्याय को प्राप्त करके जो पापों इन्द्रियों के विषयों में रमते हैं वे ___ मूढ दिव्य रत्न को पाकर उसे भस्म के लिए जलाकर राख कर डालते हैं। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (વારસાનું વરવા श्रावक के ग्यारह धर्म (प्रतिमाएँ) दसण-वय-सामाइय-पोसह-सचित्त-राइभत्ते य। बम्हारंभ-परिग्गह-अणुमणमुद्दिष्ठ देवविरदेदे ।।६९॥ अन्ययार्थ: दसण वय सामाइय पोसह सचित्त राइभत्ते बम्हारंभ, परिगह अणुमणं य उद्दिट्ठ एदे दस विरद - दर्शन, व्रत, सामायिक • प्रोषध, सचित त्याग, रात्रि भुक्ति त्याग। - प्रयच माथाग, परिवहन - अनुमति त्याग और उद्दिष्टि त्याग - ये देशव्रत के ग्यारह स्थान हैं।६९|| अर्थ (१) दर्शन प्रतिमा (२) व्रत प्रतिमा (३) सामायिक प्रतिमा (४) प्रोषधोपवासे प्रतिमा (५) सचित्त त्याग प्रतिमा (६) रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा (७) ब्रह्म चर्य व्रत प्रतिमा (८) आरंभ त्याग प्रतिमा (९) परिग्रह त्याग प्रतिमा (१०) अनुमति त्याग प्रतिमा (११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा ये देशव्रती श्रावक के ग्यारह भेद हैं ।।६९।। • सुहेण भाविदं गाणं दहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं ओई अप्पा दुक्खेहिं भावए ।। (मो. पा. ६२) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारसाकरवा मुनियों के दशधर्म उत्तम खम-मद्दव-ज्जव-सच्च-सउच्चं च संजमंचेव । तव-चाग-मकिंचण्णं बम्हा इदि दसविहं होदि ॥७॥ अन्वयार्थ: उत्तम खम मद्दव ज्जव सच्च-सउच्च च संजमं एव तव चाग अकिंचण्णं च बम्हा इदि दस विहं होदि - उत्तम, क्षमा, मार्दव, आर्जव • सत्य, शौच और संयम - इसी प्रकर तप त्याग - आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य - इस प्रकार धर्म के दस भेद होते हैं।।७०।। अर्थ (१) उत्तम क्षमा (२) उत्तम मार्दव (३) उत्तम आर्जव (४) उत्तम सत्य (५) उत्तम शौच (६) उत्तम संयम (७) उत्तम तप (८) उत्तम त्याग (९) उत्तम आकिंचन्य (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य ये इस प्रकार धर्म हैं ।।७०|| तत्त्वार्थ सूत्र में इसे निम्न प्रकार से भी कहा गया है। उत्तम क्षमा मार्दवार्जव शौच सत्य संयम तपस्त्यागाकिण्वन्य ब्रह्मचर्याणि धर्माः । ९/६ अर्थात्- (५) उन्नम क्षमा (२) उत्तम मार्दव (३) उत्तम आर्जव (४) उत्तम शौच (५) उत्तम सत्य (६) उत्तम संयम (७) उत्तम तप (८) उत्तम त्याग (९) उत्तम आकिंचन्य (५.०) उत्तम ब्रह्माचर्य ___ो इस प्रकार के धर्म है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसामु देवखा अन्वयार्थ: उत्तम क्षमा धर्म कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग जदि हवेदि सक्खादं । ण कुणदि किं वि कोहो तस्स खमा होदि धम्मोत्ति ॥ ७१ ॥ जदि कोहुप्पत्तिस्स सक्खादं बहिरंग हवेदि पुणो किंविकोहो ण कुणदि तस्स खमा धम्मोति होदि - - यदि क्रोध की उत्पत्ति का साक्षात् बाह्य कारण उपस्थित हो जाये तो भी जो किंचित भी क्रोध नहीं करता है उसके (उत्तम) क्षमा धर्म होता है || ७१ ॥ भावार्थ- मुनि के क्रोध की उत्पत्ति के साक्षात् कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध रूप भाव नहीं होना समता होना उत्तम क्षमा धर्म है। • उत्तमे तु क्षणं कोपो मध्यमे घटिकाद्वयम् । अधमे स्यादहोरात्रं चाण्डालो मरणान्तकः ॥ ( स. श्लो.सं.) ८७ • नास्ति काम समो व्याधि र्नस्ति मोह समोरिपुः । नास्ति क्रोध समो वहिन र्नस्ति ज्ञान समं सुखं || (सारसमुच्चय) • क्षमः श्रेयः श्रमः पूजा, क्षमाः शय्याः श्रमः सुख: । श्रमः दानं क्षमा पवित्रं च, क्षमा मांगल्यं उत्तमम् ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નિરસાબ તટના उत्तम मार्दव धर्म कुल-रुव-जाति-बुद्धिसु तव-सुद-सीलेसु गारवं किंचि। जो णवि कुदि सम्म नाम हले हम ॥७२।। अन्वयार्थ: जो समणो कुल रुव जादि बुद्धिसु तव सुद सीलेसु किवि गारवं णवि कुव्वदि तस्स महव धर्म हवे - जो श्रमण अर्थात् मुनि - कुल, रूप जाति - बुद्धि - तप श्रुत (शास्त्र ज्ञान) और - विभिन्न प्रकार के शीलों (स्वभावों में) • किंचित् भी अभिमान - नहीं करता है। - उसका (वह) मार्दव धर्म है ||७२।। भावार्थ- मुनिराज के जो -(१) कुल (पितृपक्ष) (२) रूप (३) जाति (मातृपक्ष) (४) बुद्धि (अनेक प्रकार की कला रूप ऐश्वर्य) (५) तप (६) ज्ञान (७) शील (पूजा सम्मान) और (८) बल (शक्ति) पर किंचित भी अभिमान नहीं करने रूप उत्तम मार्दव । धर्म होता है। • उत्तम-णाण-पहाणो उत्तम-तबयरण-करण-सीलो वि। अप्पाणं जो हीलदि मद्दव-रयणं भवे तस्स ।। (का.अ.३९५) अर्थ- उत्कृष्ट ज्ञानी और उत्कृष्ट तपस्वी होते हुए भी जो । मद नहीं करता वह मार्दव रूपी रत्न का धारी है ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाधु पेसरवा मोत्तूण कुडिल भावं णिम्मल हिदएण चरदि जो समणो । अज्जव धम्मो तइयो तस्स दु संभवदि नियमेण ॥ ७३ ॥ अन्वयार्थः जो समणो उत्तम आर्जव धर्म कुडिल भावं मोतुण णिम्माल हिदाएण चरदि तस्स द णियमेण तइयो अज्जव धम्मो ਸੰਪਰਦੇ - - जो श्रमण / मुनि कुटिल भावों को छोड़कर निमल हृदय से आचरण करता है उसी के अंदर ही नियम से तीसरा आर्जव धर्म है|७|| ८९ भावार्थ- जो मुनिराज मन, वचन, काय से छल कपट रूप कुटिल भावों का त्याग करके निर्मल पवित्र हृदय से जो सहज एवं सरल आचरण करते हैं उनके उत्तम धर्म होता है। चकवृत्तिं समालम्ब्य वञ्चकैर्वञ्चितं जगत् । कौटिल्य कुशलैः पापैः प्रसन्नं कश्मलाशयैः ॥ ( ज्ञानार्णव) अर्थ- कुटिलता में चतुर मलिनचित्त पापी ढंग बगले के ध्यान कीसी वृत्ति (क्रिया) का आलम्बन कर इस जगत को ठगते रहते है • जन्म भूमि रविद्यानामकीर्ते वसमन्दिरम | पापपमहागर्तो निकृतिः कीर्तिता बुधैः ।। ॥ ज्ञानार्णव ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु देवखा अन्वयार्थ: परसंतावयकारण - वयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं । जो वददि भिक्खु तुरियो तस्स दु धम्मो हवे सच्च ॥७४॥ जो भिक्खु पर संतावयकारण aaj मो सपर हिंद वयणं वददि उत्तम सत्य धर्म तस्स दु सच्चं धम्मं हवे - - - - जो भिक्षु/मुनि दूसरों को दुख के कारण भूत वचनों को छोड़कर स्व- पर हितकारी वचनों को कहते हैं उन्हें ही सत्य धर्म होता है || ७४ ॥ १० भावार्थ- जो मुनि, दूसरों को संताप देने वाले वचनों का त्याग कर अपने व दूसरों के प्रति हितकारी वचन बोलते हैं वे सभी सत्य वचन ही उनके सत्य धर्म है । धर्मनाशे क्रियाधंव से सुसिद्धान्तार्थ विप्लवे । अप्रष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूप प्रकाशने ॥ ( ज्ञानार्णव ९ / १५) अर्थ- जहाँ धर्म का नाश हो, क्रिया बिगड़ती हो तथा समीचीन सिद्धान्त का लोप होता हो उस जगह समी चीन धर्मक्रिया और सिद्धान्त के प्रकाशनार्थ बिना पूछे भी विद्वानों को बोलना चाहिए क्योंकि यह सत्पुरूषों का कार्य है । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ उत्तम शौच धर्म कंखाभाव णिविनि किच्चा वेरग्गधावणाजुत्तो। जो वदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं ॥७५|| अन्वयार्थ:जो परममुणी - जो श्रेष्ठ मुनि हैं वे कंखा भाव णिवित्तिं किच्चा - इच्छा भावों की निवृत्ति करते हैं तथा बेरग्गभावणा जुत्तो - वैराग्य भावना से युक्त होकर वदि - वर्तन आचरण प्रवृत्ति करते हैं तस्स दु - उनके ही सोच्च धम्म हवे - शौच धर्म हो ।।७५|| भावार्थ- जो परम निम्रन्थ मुनि, बाह्य समस्त पदार्थों के ग्रहण करने कीइच्छा का त्याग कर वैराग्य भाव से युक्त होते हैं उनके उत्तम शौच धर्म होता है । • सघरं बाधासहिद विच्छिण्णं बंधकारण विषमं । जं इंदिएहि लद्धं तं सोख दुखमेव तथा ।। __ (प्र. सा. १/७६) • सम-संतोस - जलेणं जो योनदि तिञ्च-लोह-मल-पुंज 1 भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्वं हवे त्रिमलं ।। का. अनु. ३९४ार | अर्थ- जो समभा और संतोष सारी जान से तृण्णा और लोभ रूपी मल के समूह को घोता है तथा भोजन गिद्धि नहीं करता उसकें निर्मल शौच-धर्म होता है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाण पतरवा गायक-nirLIावाविसमजायज उत्तम संयम धर्म वद समिदि पालणार दंडच्चाएण इंदियजयेण। परिणाम माणस्स पुणो संजम धम्मो हवे णियमा ।।७६३॥ अन्वयार्थ: बद समिदि पालणाए दंडच्चाएण पुणो इंदिय जयेण परिणाम माणस्स णियमा संजय धम्मो हवे - व्रत समिति के पालन से - मन, वचन काय रूप दण्ड के त्याग से । और - इंद्रिय विजय रूप - परिणाम से युक्त (मुनि) के - नियम से - संयम धर्म होता है ||७६|| भावार्थ- जो मुनि अहिंसा आदि पांच महाव्रत तथा ईर्या समिति आदि पांच समितियों का पालन करते हैं। अशुभ मन, वचन, काय, रूप दण्डों का त्याग तथा स्पर्शन आदि इंद्रियों के विषयों को जीतने रूप विशुद्ध परिणामों से युक्त हैं। उनके ही उत्तम संयम धर्म होता है। •जन्मः फलं सारं, यदेतज्ज्ञान सेवनम् । अनिगूहित: वीर्यस्य, संयमस्य च धारणम् ।। (सा. समु.) अर्थ- इस मानव जन्म का यही सार है कि अपनी शक्ति को न छिपाकर संयम को धारण करना और आत्मज्ञान की भावना करना। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाणु शेयरवा उत्तम तप धर्म विसय कसाय विणिग्गह भावं काऊण झाण सज्झाए। जो भावइ अप्पाणं सस्स तवं होदि णियमेण ॥७७।। अन्वयार्थ: जो विसय कसाय विणिग्गह झाण सज्झाए भावं काऊण अप्पाणं भाव तस्स णियमेण तवं होदि - जो मुनि ___ - विषय कषाय को निग्रह कर - ध्यान अध्यान रूप भावों को करके - आत्मा को भाते हैं। - उनके नियम से - तप होता है ।।७७|| भावार्थ- जो मुनि पांचों इंद्रियों के (8+5+2+5+7=27) सत्ताईस विषयों को तथा क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारों कषायों को नष्ट कर अर्थात् इनके वश में न होते हुए स्वध्याय और ध्यान को करते हैं। और हमेशा अपनी आत्मा का चिंतन करते हैं। उनके ही नियम से उत्तम तप धर्म होता है। • ध्रुव सिद्धि तित्थयरो चउणाण जुदो करेइ तवयरणं | जाऊण ध्रुवं कुज्जा तवयरणं णाण जुत्तोवि ।। (मो. पा) अर्थ- चार ज्ञान के धारी तीर्थंकर भी क्यों न हो उन्हें भी तपश्चरण के बिना, ध्रुव सिद्धि नहीं होती अर्थात् मुक्ति नहीं होती दिगम्बरी दीक्षा लेकर उन्हें भी तप करना पड़ता है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारापेक्स्वा उत्तम त्याग धर्म णि मोबाइपा सल्यानब्बेसु । जो तस्स हवे चागो भणिदं जिणारं देहि ॥७८।। अन्वयार्थ: जो सव्य दव्वे सु मोहं चड़ऊण तिय णिवेग भावइ - जो सम्पूर्ण द्रव्यों में - मोह का त्याग करके - मन वचन काय से निर्वेगभावना को भाते तस्स चागो हवे इदि जिणवरिंदेहि भणिदं - उनको त्याग धर्म होता है - ऐसा जिनवरेन्द्रों ने - कहा है ।।७८|| भावार्थ- जो मुनि विश्व के संपूर्ण चेतन अचेतन द्रव्यों के प्रति मोह का त्याग करके मन, वचन, काय से संसार शरीर भोगों से विरक्ति रूप निर्वेग भावना को भाते हैं। उसके उत्तम त्याग धर्म होता है ऐसा जिनवरेन्द्रों ने कहा है। विराग-पीयूष • जो तुम्हारा नहीं था, और न तुम्हारा है और न तुम्हारा होगा, उसे ग्रहण करोगे तो वजनदार होकर डूब जाओगे। बाहरी वजन के साथ अंदर भी देखो। व्यक्ति आदि अतरंग में आसक्ति से भरा है तो नियम से वह नीचे जायेगा क्योंकि आसक्ति या मूर्छा का नाम ही परिग्रह है (प!पाग निधि कृति से) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारसनाथस्वा उत्तम आकिश्चन्य धर्म होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहितु सुहदुहदं। णिइंदण दु वहदि अणयारो तस्स अकिंचण्हं ॥७९॥ अन्वयार्थ: णिस्गो होऊन य सुहदुहदं णियभावं णिग्गहित्तु णिदेण दु वहदि तस्स अणयारो अकिंचपहं - पीढ़ से रहित होकर - और सुख दुःख देने वाले - निजभावों का निग्रह करके - निद भावों को धारण करते हैं - उन अनगार (मुनि के) - आंकिचन्य धर्म होता है ।।७९|| भावार्थ- जो मुनि बाह्य आभ्यंतर समस्त परिग्रह से रहित होकर अपने मन को सुख दुःख के क्षणों में रागद्वेष से अलिप्त रखते हैं। तथा निर्द्वन्द भाव (कलह झगड़ों से रहित भाव) का धारण करते हैं। उन अनगार (ग्रहस्थी से रहित मुनि) के आकिंचन्य धर्म होता है। • अहमिक्को खलु सुद्धोदसणणाण मइओ सदारूवी। णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तपि ।। (समयपाहुड ३८) अर्थ- जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप परिणत आत्मा वह ऐसा जानता है मैं एक हूँ शुद्ध हूँ ज्ञान दर्शनमय निश्चय कर सदाकाल अरूपी हूँ अन्य पर द्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा कुछ भी नहीं है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु पैवखा अन्वयार्थ: सांगं पेच्छं तो इत्थीवं तासु मुयदि दुष्भावं 1 सो बंभर भावं सक्कदि खलु दुद्धरं धरिदुं ॥७०॥ इस्थीवं सव्वंग पेच्छंतो उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म तासु दुम्भावं मुयदि सो खलु दुद्धरं बंभचेर भावं धरिदु सक्कदि A - - - AB ९६ स्त्रियों के सम्पूर्ण अंगों को देखता हुआ भी जो उनके विषय में दुर्भाव को छोड़ देता है वह ही नियम से बड़ा कठिन ब्रह्मचर्य धर्म रूप भाव को धारण करने में समर्थ में होता है ||७० ॥ भावार्थ- जो मुनि स्त्रियों के विभिन्न अंगो को देखता हुआ भी उनके विषय में दुर्भावों को छोड़ देता है। वही अत्यन्त कठिनाई से धारण करने योग्य उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म को धारण करने में समर्थ होते हैं। अन्य नहीं । • कालकुटादहं मन्ये स्मरसंज्ञं महाविषम् । स्यातपूर्वं सप्रतीकार निःप्रतीकार मुत्तरम् ।। ( ज्ञानार्णव) अर्थ- आचार्य महाराज कहते है कि इस कामस्वरूपी विष को मैं कालकूट ( हलाहल ) विष से भी महाविष मानता हूँ क्योंकि जो पहिला कालकूट विष है वह तो उपाय करने से मिट जाता है परन्तु दूसरा जो कामरूपी विष है। वह उपाय रहित है। अर्थात् इलाज करने से भी नहीं मिटता हैं । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु वैवस्वा अन्वयार्थ: मुनि धर्म से निर्वाण की प्राप्ति साजय धम्मं चत्ता जदिधमे जो दु षट्टर जीबी । ૐ सो णय वज्जदि मोक्खं धम्मं इदि चिंतए णिस्यं ॥ ८१ ॥ सावय धम्मं चत्ता जो जीवो जदि धम्मे दु ट्टए सो मोक्खं णय वज्जदि इदि णिचं चिंतए - - - श्रावक धर्म को त्यागकर जो जीव ९७ यति अर्थात् मुनि धर्म में वर्तन करता है धारण करता है वह मोक्ष को नहीं छो ड़ता ऐसा हमेशा चिंतन करो ॥८१॥ भावार्थ जो भव्य श्रावक धर्म को त्याग कर मुनि धर्म को अंगीकार कर उस रूप अपनी परिचर्या करता है वह अवश्य ही मुक्ति श्री को प्राप्त करता है, क्योंकि बिना सच्चे मुनि हुये मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है ऐसा निरंतर चिंतन करना चाहिए। • णावि सिज्झइ तत्थधरो, जिणसासणे जड़ वि होइ तित्थयरो । गो विमोग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे || (अष्टपाहुड) अर्थ- जिनशासन में वस्त्रधारी की मुक्ति संभव नहीं, चाहे तीर्थंकर भी क्यों न हो बिना दिगम्बरी (निर्ग्रथ) दीक्षा धारण किये मोक्ष नहीं हो सकता. नग्नता (निर्ग्रथता) ही मोक्ष मार्ग है शेष सभी उन्मार्ग है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारसाण पेपरवा ९८ । निश्चम को द्विविध धारित अरमा णिच्छयणयेण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झत्थ भावणाए सुप्पं चिंतए णिच्चं ॥८२॥ अन्वयार्थ: णिच्छय णयेण जीवो सागारणगार धम्मदो भिण्णो मज्झत्थ भावणाए - निश्चय नय से यह जीव (क्रिया काण्ड रूप) - सागार (श्रावक) और अनगार (मुनि) धर्म से • रहित है इसलिए इसमें - माध्यस्थ भावना के द्वारा अर्थात् माध्यस्थ भाव रखते हुए - चिंतन करना चाहिए - चिंतन करना चाहिए ॥८२|| णिच्चं सुद्धप्पं चिंतए भावार्थ- शुद्ध निश्चय नय से यह जीव सागार अर्थात श्रावक धर्म और अनगार अर्थात् मुनि धर्म के संकल्प विकल्पों से भिन्न हैं अतः इसमें माध्यस्थ भाव रखते हुए शुद्धात्मा का चिंतन करना चाहिए। • जं अण्णी कामं, खवेदि भवसयसहस्स कोडिहिं । तंणाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ (प्रवचन सार) अर्थ- अज्ञानी जितने कर्म को लाखों करोड़ो वर्षों में खपाते है, तीन गुप्ति से युक्त ज्ञानी मुनि उतने कर्म को उच्छ्वासमात्र में ही क्षय कर देते है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारसाणु पक्रया। ९९ १२ बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा बोधि की प्रप्ति अत्यंत दुर्लभ उप्पज्जदि सपणाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स । चिंता हवेइ बोहो अच्चंतं दुल्लंह होदि ।।८३॥ . अन्वयार्थ: जेण उवाएण सण्णाणं उप्पज्जदि तरम गायब चिंता हवेइ बोहो अच्चंतं दुल्लहं होदि - जिस उपाय से - सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है - ग़म उपाय की - चिंता करना बोधि है - जो अत्यन्त दुर्लभ - होता है ।।८।। भावार्थ- जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है उस उपाय की चिंता करना बोधि है जो अत्यन्त दुर्लभ है। • सुप्रापं न पुनः पुंसां बोधिरत्नं भवार्णवे। हस्ताभ्रष्ट यथा रत्नं महामूल्यं महार्णवे ॥१२।। (ज्ञानार्णवः) अर्थ- यह जो बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप रत्नात्रय है, संसार रूपी || समुद में प्राप्त होना सुगम नहीं है, किन्तु अत्यंत दुर्लभ है इसको पाकर भी जो खो । बैठते हैं, उनको हाथ में रक्खे हुये रत्न को बड़े समुद्र में डाल देने पर जैसे फिर मिलना कठिन है, उसी प्रकार सम्यग् रत्नत्रय का पाना दुर्लभ है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसाणु क्या स्वद्रव्य उपादेय है ऐसा निश्चय, सम्यग्ज्ञान है कम्मुदयंज पज्जाया हेयं खाओवसमियणाणं तु । सगदव्वमुपादेयं णिच्छयमिदि होदि सण्णाणं ॥ १८४॥ अन्वयार्थ: पिच्छय कम्मुदयज पज्जाया तु खाओaafमय णाणं हेय सणाणं सगद इदि जवादेयं होदि निश्चय नय से कर्म के उदय से होने वाली - राग द्वेष मोह रूप पर्याय और क्षायोपशमिक ज्ञान ये सभी छोड़ने योग्य हैं और - - १०० सम्यज्ञान स्वभाव है एवं द्रव्य है इसलिये वही उपादेय होता है ॥ ८४ ॥ भावार्थ- निश्चय नय से चारित्र मोह कर्म के उदय से होने वाली राग द्वेष मोह रूप पर्याय तथा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाले ज्ञान हेय हैं। छोड़ने योग्य हैं। किंतु एक मात्र क्षायिक केवलज्ञान सच्चा ज्ञान है। वह ही हमारा अपना निज स्वभाव रूप ज्ञान है । अत: उपादेय है ग्रहण करने योग्य है । • नरकान्ध महाकूपे पततां प्राणिनां स्वयम् । धर्म एव स्वसामर्थ्याद्दते हस्तावलम्बनम् ||१३|| ( ज्ञानार्णव) अर्थ - नरकरूपी महा अंधकूप में स्वयं गिरते हुये जीवों को धर्म ही अपने सामर्थ्य से हस्तावलम्बन (हाथ का सहारा) देकर बचाता है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ভায় যুবহd १०१ केवल आत्मा ही स्वद्रव्य है मुलुत्तयपथडीओ मिच्छत्तादी असंखलोग पिरणामा। परदष्यं सगदव्वं अप्पा इदि णिच्छयणएण ||८५॥ अन्वयार्थ: णिच्छयणएण मिच्छत्तादी असंखलोग . परिणामा मुलुप्तय पयडीओ पर दव्वं अप्पा सद दव्वं - निश्चय नय से - मिथ्यात्वादि असंख्यात लोक प्रमाण - परिणाम - मूल और उत्तर प्रकृतियाँ - पर द्रव्य है तथा - अपनी आत्म स्वद्रव्य है। - ऐसा जानना चाहिए ॥८५॥ इदि भावार्थ- शुद्ध निश्चय नय से मिथ्यात्वादि असंख्यात् लोक प्रमाण परिणाम कर्मों की आठ मूल और एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृति रूप में विभक्त है । ये सभी परिणाम व पौद्गलिक कर्म प्रकृतियां पर द्रव्य हैं और अपनी आत्मा स्व द्रव्य है ऐसा जानना चाहिए। • रयणत्तय-संजुत्तो जीवो वि हवेइ उत्तम तित्थं। संसारं तरइ जदो रयणत्तत-दित्य-णावाए ।।१९।। अर्थ- रत्नात्रय से सहित यही जीव उत्तम तीर्थ है क्योंकि वह रत्नात्रय रूपी दिव्य नावसे संसार को पार करता है। (कातिकेयानुप्रेक्षा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसास्वा निश्चय में हेयोपांच का विकल्प नहीं एवं जायदि णाणं हेयमुपादेय णिच्छये णत्थि। चिंतिज्जइ मुणि बोहिं संसार विरमणढे य ।।८।। अन्वयार्थ: एवं णिच्छये हेयमुपादेय जायदि णाणं णस्थि संसार विरमणद्वेय मुणि बोहि चिंतिज्ज - इस प्रकार निश्चय नय से - हेय और उपादेय रूप संकल्प और | विकल्पों को - उत्पन्न करने वाला - क्षायोपशमिक ज्ञान - (आत्मा स्वरूप) नहीं है इसलिये - संसार से विरक्त - मुनि को - (केवल ज्ञान रूप) बोधि का चिंतन करना चाहिए ।।८।। भावार्थ- इस तरह से निश्चय नय से हेय और उपादेय रूप संकल्प विकल्पों को उत्पन्न करने वाला क्षायोपशमिक ज्ञान निजी स्वभाव नहीं है इसलिए संसार से विरक्त मुनि को निज स्वभाव रूप क्षायिक केवलज्ञान रूपी बोधि का चिंतन करना चाहिए। .धर्म: कामदुधा धेनुर्धर्मश्चिन्तामणिमहान | धर्म: कल्पतरु स्थेयान् धर्मो हि निधिरक्षयः ॥२/३४|| (आदिपुराण) अर्थ- मनचाही वस्तुओं को देने के लिये धर्म ही कामधेनू है, धर्म ही महान चिन्तामीण है, धर्म ही स्थिर रहने वाला कल्पवृक्ष है और धर्म ही अविनाशी निधि है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ાિરા પાર 15 १०३ अनुप्रेक्षाएँ ही प्रतिक्रमण आदि है उपसंहार बारस अणुपेक्खाओ पच्चक्खाणं तहेव पडिकमणं । आलोयणं समाहिं तम्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥८७|| अन्वयार्थ: बारस अणुपेक्खाओ पच्चक्खाणं पडिकमणं आलोरणं तहेव समाहिं तम्हा अणुवेक्वं - ये बारह अनुप्रेक्षायें ही - प्रत्याख्यान हैं, प्रतिक्रमण हैं। - आलोचना है - तथा वे इसी प्रकार से - समाधि हैं - इसलिये (इन) - अनुप्रक्षाओं का हमेशा चिंतन करना चाहिए ।।८।। भावार्थ- ये बारह अनुप्रेक्षाएं ही वास्तव में प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण, आलोचना तथा समाधि है । अत: इनका हमेशा चिंतन करना चाहिए। • णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लदी। तम्हा वयणविवाद सगपरसमएहि वज्जिज्जो ।। (नि. सा, १५६) अर्थ- अनेक प्रकार के जीव हैं. कर्म भी अनेक प्रकार के हैं और लब्धि के भी नाना प्रकार हैं। इसलिए स्वप्समन और परसमय के द्वारा वचनों का विवाद छोड़ देना चाहिए। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [धारसाणु वैवखा ये क्रियाऐं अहोरात्र करें रत्तिदिवं पडिकमणं पञ्चक्खाणं सम्माहि सामइयं । आलोयणं पकुव्वदि विजदिसती अन्वयार्थ: अप्पणो जदि सत्ती विज्जदि रति दिवं पडिकमणं पञ्चक्खाणं समाहि सामइयं आलोयणं पकुव्वदि - यदि जितनी अपनी शक्ति है उसके अनुसार दिन रात प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान - १०४ समाधि, सामायिक आलोचना को अच्छी तरह से करना चाहिए ||८८॥ भावार्थ - अपनी जितनी शक्ति है उसके अनुसार अहोरात्र, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समाधि, सामायिक, आलोचना को अच्छी तरह से करना चाहिए। • ईसा भावेण पुणो, केई जिंदंति सुंदर मग्गं । तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणइ जिणमग्गो ॥ ( नियमसार १८६ ) अर्थ- कोई लोग मिथ्यात्व के उदय से कलुषित चित्त हुये ईष्याभाव से सुन्दर, अनेकांत स्वरूप, सार्वभौम जिन शासन की निंदा करते हैं, उस निर्दोष शासन में भी दोष प्रगट करते हैं, वे अवर्णवाद करने वाले लोग दर्शनमोहनीय ( मिश्यात्व ) की सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति का बंध कर लेते हैं । उन एकांतवादी निंदक जनों के वचन सुनकर हे भव्योत्तमा आप लोग स्वर्ग-मोक्ष को देने वाले जिनमार्ग में अभक्ति अथवा अविश्वास मत करों । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाशुक्रवा १०५ जो भी मोक्ष गए बारह भावना के चिंतवन से गोधण्या जे पुलिस अगामालेमा बार आगुवन : परिभाविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ।।८।। अन्वयार्थ: अणाइकालेण जे पुरिसा मोक्न गया बारअणुपेक्खं परिभाविऊण - अनादिकाल से आज तक - जितने भी पुरुष - मोक्ष गये हैं वे सब - इन बारह अनुप्रेक्षाओं को • अच्छी तरह से भा करके ही मोक्ष गये हैं इसलिये मैं (कुंद कुंदाचार्य) - उन सभी को - विधि पूर्वक - बारम्बार नमस्कार करता हूँ ॥८९|| तेसिं सार्म पुणो पुणो पणमामि भावार्थ- अनादिकाल से आज तक जितने भी पुरुष मोक्ष गये हैं वे सब इन बारह अनुप्रेक्षाओं को अच्छी तरह से भा करके ही गये हैं। इसलिये में (कुंद कुदाचार्य) उन सभी । (सिद्धों) को विधि पूर्वक बारम्बार नमस्कार करता हूँ। • जो रयणत्तय-जुत्तो खमादि-भावेहिं परिणदो णिच्च । .सव्वत्थ वि मज्झत्थो सो साहू भण्णदे धम्मो।। (का. अ. ३९२) | अर्थ- जो रत्नत्रय से युक्त होता है, सदा उत्तमक्षमा आदि भावों से सहित होता है और सब में मध्यस्थ रहता है वह साधु है और वही धर्म है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारसाण रोवस्था १०६ । अनुप्रेक्षा माहात्म्य किं पलविएण बहुणा जे सिद्धाणरवरा गये कालें। सिज्झिहदि जे भविया तं जाणह तस्स माहप्पं ॥१०॥ अन्वयार्थ:-. किं बहुणा पलबिएण गये काले जे णरवरा सिद्धा विधा सिझिहाँद तं तस्स महाप्पं - बहुत कहने से क्या संक्षेप में इतना ही समझो कि - भूतकाल में जो भी सिद्ध हुये हैं और - और भविष्य में भी जो भव्य सिद्ध होगें। - वह सब इन बारह अनुप्रेक्षाओं का ही महात्म्य हैं। - ऐसा जानो ॥९॥ जाणह भावार्थ- बहुत कहने से क्या प्रयोजन संक्षेप में इतना ही समझो कि भूतकाल में जो भी आज तक सिद्ध हुए है और भविष्य काल में भी जो भव्य सिद्ध होंगे | वह सब बारह अनुप्रेक्षाओं का ही महात्म्य है । ऐसा जानो। • विध्याति कषायाग्निर्बिगलति रागो विलीयते ध्वान्तम् । उन्मिषति बोधदीपो हदि पुंसां भावनाभ्यासात् ।। (ज्ञानार्णव ७) अर्थ- इन द्वादश भावनाओं के निरंतर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदय में कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा परद्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूप अंधकार का विलय होकर ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश होता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पारा पेपरवा अंतिम निवेदन भावना भाने का फल इदि णिच्छयववहारं जं भणियं कुंद कुंदमुणिणाहे / जो भावइ सुद्धमणो सो पावइ परमणियाणं // 11 // अन्वयार्थ:इदि - इस प्रकार से मुणिणाहे कुंद कुंद - मुनियों के नाथ कुंद कुद आचार्य श्री ने जं णिच्छयववहारं - निश्चय और व्यवहार को भणिय - कहा है उसे जो सुद्धमणो भावइ - जो शुद्ध मन से भाता है सो परम णिव्याणं * वह परम निर्वाण (मोक्ष) को খুনঃ - प्राप्त करता है ||11 // भावार्थ- इस प्रकार से मुनियों के नाथ/ स्वामी / नायक कुंद कुंद आचार्य श्री ने निश्चय और व्यवहार नय से बारह अनुप्रेक्षाओं को कहा है। उसे जो शुद्ध मन से भाता है, चिंतन करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त होता है, करता है। -इति• दीज्यन्नाभिरयं ज्ञानी भावनाभिर्नि रन्तरम् / इहैवाप्नोत्यनातक सुखमत्यक्षमक्षयम् / / (ज्ञानार्णव) अर्थ- इन बारह भावनाओं से निरंतर रमते हुए ज्ञानीजन इसी लोक में रोगादिक की बाधारहित अतीन्द्रिय अविनाशी सुख को पाते हैं अर्थात केवलज्ञानानन्द को पाते है।