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बारापेक्स्वा
उत्तम त्याग धर्म
णि
मोबाइपा सल्यानब्बेसु । जो तस्स हवे चागो भणिदं जिणारं देहि ॥७८।।
अन्वयार्थ:
जो सव्य दव्वे सु मोहं चड़ऊण तिय णिवेग भावइ
- जो सम्पूर्ण द्रव्यों में - मोह का त्याग करके - मन वचन काय से निर्वेगभावना को भाते
तस्स चागो हवे इदि जिणवरिंदेहि भणिदं
- उनको त्याग धर्म होता है - ऐसा जिनवरेन्द्रों ने - कहा है ।।७८||
भावार्थ- जो मुनि विश्व के संपूर्ण चेतन अचेतन द्रव्यों के प्रति मोह का त्याग करके मन, वचन, काय से संसार शरीर भोगों से विरक्ति रूप निर्वेग भावना को भाते हैं। उसके उत्तम त्याग धर्म होता है ऐसा जिनवरेन्द्रों ने कहा है।
विराग-पीयूष • जो तुम्हारा नहीं था, और न तुम्हारा है और न तुम्हारा होगा, उसे ग्रहण करोगे तो वजनदार होकर डूब जाओगे। बाहरी वजन के साथ अंदर भी देखो। व्यक्ति आदि अतरंग में आसक्ति से भरा है तो नियम से वह नीचे जायेगा क्योंकि आसक्ति या मूर्छा का नाम ही परिग्रह है
(प!पाग निधि कृति से)