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वारसाणवस्या
भावार्थ- हे जीव ! यह अचेतन शरीर, दुर्गंधित, घृणित हैं। रस रक्त माँस मेदा हड्डी, मज्जा, मूत्र पीव इत्यादि गंदे मलों से भरा हुआ है तथा यह चर्ममय हैं, मूर्तिक है, दुर्गंधित हैं, अचेतन व अनित्य है। सड़ना गलना और मृत्यु को प्राप्त होना इसका स्वभाव है। तथा यह बहुत सारे कृमि आदि जीवों से भरा हुआ हैं। अत: तू निरंतर इस अपवित्र शरीर के विषय में चिंतन कर उससे विरक्त हो।
• अभिमतफल सिद्धेरभ्युपायः सुबोधः,. स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्ततू प्रसादात्मबुद्धिः न हि कृतमुपकार साधनो विस्मरन्ति ।।
पंचास्तिकाय टीका।। अर्थ- अभिमत -इष्टफल की सिद्धि का सुन्दर उपाय सम्यग्ज्ञान है, वह सम्यग्ज्ञान सुशास्त्र से मिलता है, सुशाम्र की उत्पत्ति आप्त भगवान सर्वज्ञ (जिनेन्द्र) से होती है। इसलिए आप्त पूज्य है, क्योंक आप्त की कृपा से पुरुषों की बुद्धि पूज्य हो जाती है। तथा साधु सज्जन पुरुष तो उपकारी द्वारा अपना किया हुआ उपकार वास्तव में कभी भूलते ही नहीं हैं।