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वारसाणु पैक्खा
अन्वयार्थ:
वास्तविक शरण आत्मा
जाड़ जरा मरण रुजा भयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा
तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्त कम्मवदि रित्तो || ११||
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जाइ जरा मरण रुजा भय दो
अप्पणो अप्पा रक्खे दि
तम्हा
बंध उदय सत्त कम्म वदिरित्तो
आदा सरां
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( इस जीव को ) जन्म बुढ़ापा मरण रोग भय से
आत्मा की आत्मा ही रक्षा करता है
इस लिये
बंध उदय सत्वरूप कर्म से रहित
आत्मा शरण है| || ११ ॥
भावार्थ - जन्म (उत्पत्ति), जरा ( बुढ़ापा ) और मृत्यु ( मरण) रूपी रोगों के भय से अपनी आत्मा की अपनी आत्मा ही रक्षा करती है। अन्य दूसरा कोई रक्षा नहीं करता है। इसलिये निश्चय से बंध उदय और सत्व रूप कर्मों से रहित हमारी आत्मा ही हमारे लिए शरण भूत हैं।
• यथा बालं तथा वृद्धं यथायं दुर्विधं तथा । यथा शूरं तथा भीरुं साम्येन ग्रसतेऽन्तकः ।। ( ज्ञा. आर्णव. )
अर्थ- - यह काल जैसे बालक को ग्रसता है, वैसे ही वृद्ध को भी ग्रसता है और जैसे धनाढ्य को ग्रासता है, उसी प्रकार दरिद्र को भी। तथा जैसे शूरवीर को ग्रसता है उसी प्रकार कायर को भी। जगत के सभी जीवों को समान भाव से ग्रसता है किसी में
भी इसका हीन अधिक विचार नहीं है इसी कारण इसका नाम समवर्ती भी है।