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जह णवि सक्कमणज्जो अणज्ज भासं विणा दु गाहेर्नु । तह ववहारेण विणा परमत्धुवदेसण मसक्कं ।।८।। समयसार अर्थात:- जिस प्रकार किसी अनार्य (अनाड़ी) पुरूष को उसकी भाषा में बोले बिना नहीं समझाया जा सकता है उसी प्रकार परमार्थ का उपदेश भी व्यवहार के बिना नहीं हो सकता। अर्थात परमार्थ को समझाने के लिए व्यवहार नय का अवलंबन किया जाता है। महान आचार्यों की परम्परा में दो हजार वर्ष पूर्व युग प्रधान आचार्य कुन्द-कुन्द स्वामी ऐसे प्रखर प्रभा पुञ्ज के समान श्रेष्ठ आचार्य हुये जिनके महान आध्यात्मिक चिन्तन से सम्पूर्ण भारत मनीषा प्रभावित हुयी। यही कारण रहा कि इसके पश्चात होने वाले आचार्यों ने अपने आप को उनकी परम्पर। का आचार्य मानकर गौरव माना उनको विशुद्धचर्या तथा ज्ञान गरिमा को श्रेष्ठ स्वीकार कर मुक्त कंठ से गुणगान किया।
मंगलं भगवान्वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्द कुन्दार्यो जैन धर्मोस्तु मंगलम् ।। अर्थात् :- तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी मंगल स्वरूप है उनके प्रथम गणधर गौतम स्वामी मंगलात्मक है आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी जैसे समर्थ आचार्यों की आचार्य परम्परा मंगलमय है। तथा प्राणी मात्र का कल्याण करने वाले जैन धर्म सभी के लिए मंगलकारक है।
शिला लेखों के अनुसार इनका जन्म स्थान कोणु कुन्दे प्रचलित नाम कोंड (कुन्द कुन्द पुरम) तहसील है जो कि आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में कौण्ड कुन्दपुर अपरनाम कुरूमरई माना जाता है इनका जन्म शार्वरी नाम संवतसर माघ शुक्ला ५ ईसा पूर्व १०८ (वी.सी.) में हुआ था। इन्होंने ११ वर्ष की अल्पायु में ही श्रमण दीक्षा ले ली थी तथा ३३ वर्ष तक मुनिपद पर रहकर ज्ञान और चारित्र की सतत साधना की ४४ वर्ष की आयु (ईसा पूर्व ६४) में चतुर्विध संघ ने इन्हें आचार्य पर पर प्रतिष्ठित किया। ५१ वर्ष १० माह १५ दिन तक इन्होंने आचार्य पद को सुशोभित किया। इस प्रकार इन्होंने कुल ९५ वर्ष १० माह १५ दिन की दीर्घायु पायी और ईसा पूर्व १२ में समाधिमरण पूर्वक मृत्यु पाकर स्वर्गारोहण किया।