Book Title: Barsanupekkha
Author(s): Kundkundacharya, Vishalyasagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 96
________________ प्रारसनाथस्वा उत्तम आकिश्चन्य धर्म होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहितु सुहदुहदं। णिइंदण दु वहदि अणयारो तस्स अकिंचण्हं ॥७९॥ अन्वयार्थ: णिस्गो होऊन य सुहदुहदं णियभावं णिग्गहित्तु णिदेण दु वहदि तस्स अणयारो अकिंचपहं - पीढ़ से रहित होकर - और सुख दुःख देने वाले - निजभावों का निग्रह करके - निद भावों को धारण करते हैं - उन अनगार (मुनि के) - आंकिचन्य धर्म होता है ।।७९|| भावार्थ- जो मुनि बाह्य आभ्यंतर समस्त परिग्रह से रहित होकर अपने मन को सुख दुःख के क्षणों में रागद्वेष से अलिप्त रखते हैं। तथा निर्द्वन्द भाव (कलह झगड़ों से रहित भाव) का धारण करते हैं। उन अनगार (ग्रहस्थी से रहित मुनि) के आकिंचन्य धर्म होता है। • अहमिक्को खलु सुद्धोदसणणाण मइओ सदारूवी। णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तपि ।। (समयपाहुड ३८) अर्थ- जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप परिणत आत्मा वह ऐसा जानता है मैं एक हूँ शुद्ध हूँ ज्ञान दर्शनमय निश्चय कर सदाकाल अरूपी हूँ अन्य पर द्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा कुछ भी नहीं है।

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