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वारसाणु शेयरवा
उत्तम तप धर्म
विसय कसाय विणिग्गह भावं काऊण झाण सज्झाए। जो भावइ अप्पाणं सस्स तवं होदि णियमेण ॥७७।।
अन्वयार्थ:
जो विसय कसाय विणिग्गह झाण सज्झाए भावं काऊण अप्पाणं भाव तस्स णियमेण तवं होदि
- जो मुनि ___ - विषय कषाय को निग्रह कर
- ध्यान अध्यान रूप भावों को करके - आत्मा को भाते हैं। - उनके नियम से - तप होता है ।।७७||
भावार्थ- जो मुनि पांचों इंद्रियों के (8+5+2+5+7=27) सत्ताईस विषयों को तथा क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारों कषायों को नष्ट कर अर्थात् इनके वश में न होते हुए स्वध्याय और ध्यान को करते हैं। और हमेशा अपनी आत्मा का चिंतन करते हैं। उनके ही नियम से उत्तम तप धर्म होता है।
• ध्रुव सिद्धि तित्थयरो चउणाण जुदो करेइ तवयरणं | जाऊण ध्रुवं कुज्जा तवयरणं णाण जुत्तोवि ।।
(मो. पा) अर्थ- चार ज्ञान के धारी तीर्थंकर भी क्यों न हो उन्हें भी तपश्चरण के बिना, ध्रुव सिद्धि नहीं होती अर्थात् मुक्ति नहीं होती दिगम्बरी दीक्षा लेकर
उन्हें भी तप करना पड़ता है।