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उत्तम शौच धर्म
कंखाभाव णिविनि किच्चा वेरग्गधावणाजुत्तो। जो वदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं ॥७५||
अन्वयार्थ:जो परममुणी
- जो श्रेष्ठ मुनि हैं वे कंखा भाव णिवित्तिं किच्चा - इच्छा भावों की निवृत्ति करते हैं तथा बेरग्गभावणा जुत्तो - वैराग्य भावना से युक्त होकर वदि
- वर्तन आचरण प्रवृत्ति करते हैं तस्स दु
- उनके ही सोच्च धम्म हवे
- शौच धर्म हो ।।७५||
भावार्थ- जो परम निम्रन्थ मुनि, बाह्य समस्त पदार्थों के ग्रहण करने कीइच्छा का त्याग कर वैराग्य भाव से युक्त होते हैं उनके उत्तम शौच धर्म होता है ।
• सघरं बाधासहिद विच्छिण्णं बंधकारण विषमं । जं इंदिएहि लद्धं तं सोख दुखमेव तथा ।।
__ (प्र. सा. १/७६) • सम-संतोस - जलेणं जो योनदि तिञ्च-लोह-मल-पुंज 1 भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्वं हवे त्रिमलं ।।
का. अनु. ३९४ार | अर्थ- जो समभा और संतोष सारी जान से तृण्णा और लोभ रूपी मल के समूह को
घोता है तथा भोजन गिद्धि नहीं करता उसकें निर्मल शौच-धर्म होता है।