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बारसाणु पैवखा
अन्वयार्थ:
सांगं पेच्छं तो इत्थीवं तासु मुयदि दुष्भावं 1 सो बंभर भावं सक्कदि खलु दुद्धरं धरिदुं ॥७०॥
इस्थीवं सव्वंग पेच्छंतो
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
तासु दुम्भावं
मुयदि
सो खलु दुद्धरं
बंभचेर भावं
धरिदु सक्कदि
A
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AB
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स्त्रियों के सम्पूर्ण अंगों को देखता हुआ
भी जो
उनके विषय में दुर्भाव को
छोड़ देता है
वह ही नियम से बड़ा कठिन
ब्रह्मचर्य धर्म रूप भाव को
धारण करने में समर्थ में होता है ||७० ॥
भावार्थ- जो मुनि स्त्रियों के विभिन्न अंगो को देखता हुआ भी उनके विषय में दुर्भावों को छोड़ देता है। वही अत्यन्त कठिनाई से धारण करने योग्य उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म को धारण करने में समर्थ होते हैं। अन्य नहीं ।
• कालकुटादहं मन्ये स्मरसंज्ञं महाविषम् । स्यातपूर्वं सप्रतीकार निःप्रतीकार मुत्तरम् ।। ( ज्ञानार्णव)
अर्थ- आचार्य महाराज कहते है कि इस कामस्वरूपी विष को मैं कालकूट ( हलाहल ) विष से भी महाविष मानता हूँ क्योंकि जो पहिला कालकूट विष है वह तो उपाय करने से मिट जाता है परन्तु दूसरा जो कामरूपी विष है।
वह उपाय रहित है। अर्थात् इलाज करने से भी नहीं मिटता हैं ।