Book Title: Barsanupekkha
Author(s): Kundkundacharya, Vishalyasagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 41
________________ वारसाणु वैक्खा ૪ वे पुद्गल स्निग्ध या रुक्ष स्पर्श तथा वर्ण आदि के द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भावरूप से ग्रहण किये थे उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत स्निग्ध या रुक्ष स्पर्श तथा वर्ण और गन्ध आदिके द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भावरूप से ग्रहण किये थे और बीच में ग्रहीत परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा। तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही नोकर्म परमाणु उसी प्रकार से नोकर्म भाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन होता होता है तथा कर्मद्रव्यपरिवर्तन का स्वरूपं एक जीवने आठ प्रकार के कर्मरूपसे जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, वे समयाधिक एक आवलीकालके बाद द्वितीयादिक समयोंमें झर गये। पश्चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से उस जीव के जब कर्मभाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब एक कर्म द्रव्यपरिवर्तन कहलाता है। इसे ही पुद्गल परिवर्तन संसार कहते हैं। भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान मया सर्वेपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य, मम विज्ञस्य का स्पृहा । || इष्टोपदेश ३०|| अर्थ- मोह से मैने सभी पुदगल परमाणुओं को बार-बार भोगा और छोड़ा है। अब जूठन के समान उन त्यक्त पदार्थों के प्रति मुझ बुद्धि मान की क्या इच्छा हो सकती है? अर्थात् अब उनके प्रति इच्छा ही नहीं है।

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