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लारसा गेयस्या
हेयोपादेय जीव का कथन
संसारमदिक्कतो जीवोवादेयमिदि विचिंतिज्जो। संसार दुहक्कंतो जीवोसो हेयमिदि विचिंतिजो॥३८॥
अन्वयार्थ:
संसारं अदिक्कतो जीवो उवादेयं इदि विचिंतिज्जो संसार दुहक्कतो जीवो
- संसार से अतिक्रांत अर्थात् मुक्त जीव - उपादेय है, ग्रहण करने के योग्य है। - ऐसे-चिंतन करने योग्य हैं किंतु - संसार के दुखों से आक्रात/युक्त जीव - हेय है, छोड़ने योग्य है। - ऐसा विचार करना चाहिए ।।३८।।
हेयं
इदि विचिंतिज्जो
. भावार्थ- संसार से रहित मुक्त जीव उपादेय है, ध्यान आदि के द्वारा ध्येय है। चिंतन के योग्य होने से चिंतनीय हैं, किंतु संसार के दुःखों से युक्त संसारी जीव हेय हैं, छोड़ने योग्य हैं। ऐसा विचार करना चाहिए।
• पातयन्ति भवावर्ते में त्वा ते नैव बान्धवाः। बन्धुता ते करिष्यन्ति हितमुद्दिश्य योगिनः॥
||ज्ञा. आ.|| अर्ध- हे आत्मन्! जो तुझे संसार के चक्र में डालते हैं, वे तेरे बांधव ( हितैषी) नहीं है, किन्तु जो मुनिगण तेरे हित की वांछा कर के बंधुता करते हैं, अर्थात् हित का उपदेश करते हैं, स्वर्ग तथा मोक्ष का मार्ग बताते हैं,
वे ही वास्तव में तेरे सच्चे और परम मित्र हैं।