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बारसागुपदरता
ध्यान और संवर का कारण
सुद्भुषजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं य होदि जीवस्स। तम्हा संवर हेदू इराणोत्ति विचिंतए णिच्च ।।६४।।
अन्वयार्थ:
जीवस्स जोगेण धम्मं य सुक्कं
- जीव को - शुद्धोपयोग से - आध्यात्मिक या निश्चय धर्मध्यान और
शुक्ल ध्यान - इसलिये संवर का हेतु मुख्य कारण ध्यान
तम्हा संवर हेदू झाणोत्ति
णिच्चं विचिंतए
- इस प्रकार हमेशा विचार करना चाहिए
॥६४|
भावार्थ- रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का व्याख्यान शास्त्रों में आगम पद्धति (भाषा) व आध्यात्म पद्धति (भाषा) से किया गया है। आगम भाषा भेद रत्नत्रय की मुख्यता से कथन करता है। भेद व अभेद दोनों प्रकार के रत्नत्रय एक मात्र निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि के ही पाये जाते हैं। अन्य लोगों के नहीं। इन दोनों में कारण और कार्य का अंतर है। भेद रत्नत्रय कारण है अभेद रत्नत्रय कार्य है। भेद रत्नत्रय छट्टे गुणस्थान में होता है और अभेद रत्नत्रय सातवें से उपरिम गुण स्थानों में होता है। सातवें गुणस्थान के दो भेद हैं । स्वस्थानाप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त । स्वस्थानाप्रमत्त प्राय: सभी मुनिराजों को बनता रहता है किंतु सातिशय अप्रमत्त एक मात्र श्रेणी के सम्मुख मुनिराजों को ही होता है। आध्यात्मिक शास्त्रों में चौथे से सातवे गुणस्थान तक के जीव धर्म ध्यान के स्वामी कहे गये हैं। इसके आगे एक मात्र शुक्ल ध्यान के ही पाये (प्रभेद) क्रमश: पाये जाते हैं। छट्टे गुणस्थान तक जीव के परिणाम