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[बारसायरवा
अशुभ और शुभ उपयोग के निरोधक हेतु
सुहजोगस्स पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुह जोगस्स णिरोहो सुद्धव जोगेण संभवदि ॥१३॥
अन्वयार्थ:
सुहजोगस्स पवित्ती असुह जोगस्स संवरणं कुणदि सुहजीस्स गिरोहो सुद्धव जोगेण संभवदि
- शुभयोग की प्रवृत्ति - अशुभ योग का संवर करती है और - शुभ योग ज्ञानिय संवर) . शुद्धोपयोग से संभव है ।।६३॥
भावार्थ- शुभमन वचन काय रूप योगों से अशुभ मन, वचन, काय रूप योगों का अथवा इनसे होने वाला आम्रव रुक जाता है। अर्थात् अशुभ योग से होने वाला आस्रव का संवर हो जाता है। तथा शुभयोगों से होने वाला आम्रव का निरोध (संवर) शुद्धोपयोग से ही संभव है।
• भरहे दुस्समकाले धम्मज्याणं हवेइ णाणिस्स। तं अप्पसहाठिदे ण हु मण्णदि सो वि अण्णाणी॥ • अज्जवि तिरग्रणसुद्धा अप्पा झाइवि इंदत्तं । लोयंतिय देवत्तं तत्थ चुदा णिव्बुदि अंति ।।
(मोक्ष, पा. ७६-७७) अर्थ- भरत क्षेत्र में पंचमकाल में ज्ञानी जीवों को धर्मध्यान होता है। जो कोई आत्मस्वभाव में स्थित जीव उसे नहीं मानता है वह अज्ञानी है। आज भी इसी पंचमकाल में रत्नत्रय (तीनरत्नों) से शुद्ध (सहित) मुनि आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपद और लौकान्तिक देव पद प्राप्त करते है। वहाँ से च्युत होकर मनुष्य होकर मोक्षपदपाते है।