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बारसाणु पेमरवा
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१०. निर्जरा अनुप्रेक्षा जिस कारण से संतर उसी से निर्जरा भी
बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं । जेण हवे संवरणं तेण दुणिज्जरणमिदि जाण ॥६६॥
अन्वयार्थ:
बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं जेण संवरणं हो
- पूर्वबद्ध कर्मों का गलना . - निर्जरा कहलाती है तथा - जिन भावों से संवर होता है अथवा जो
संवर के कारण है - उन्ही भावों से निर्जरा भी होती है - ऐसा जानो • इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।
तेण दुणिज्जरणं इदि जाण इदि जिणेहि
॥६६॥
भावार्थ- पूर्व बद्ध कर्मों का तप आदि के द्वारा निर्जीण होना निर्जरा कहलाती है । जिन भावों या कारणों से संवर होता है उन्हीं भावों से निर्जरा भी होती है।
यही बात तत्त्वार्थ सूत्र में भी कही है। गधा - "तपसा निर्जरा च" अर्थात् - सम्यक्तप से निर्जरा भी होती है और संवर भी होता है ।
• कुसलस्स तवो णिवुणस्स संजमो सम्मपरस्सवेरगो। सुदभावेण तत्तिय तह्म सुदभावणं कुणह ।।१५१।।
(र. सा.)