Book Title: Barsanupekkha
Author(s): Kundkundacharya, Vishalyasagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 82
________________ 11रामुपवरचा निश्चय से आत्मा संघरहित जीवम्स ण संवरणं परमट्ठणएण शुद्धभावादो। संबरभाव विमुक्कं अप्पाणं चिंतए णिच्चं ॥६५|| अन्वयार्थ: परमट्टणएण जीवस्स शुद्ध भावादो संघरणं संवरभाव विमुक्कं - परमार्थ नय अर्थात् शुद्ध निश्चय नय से. • जोत्र का शुद्ध भाव भी - (अपनी) आत्मा संवर भाव से रहित है ऐसा - हमेशा - विचार करना चाहिए ॥६५॥ णिचं चिंतए भावार्थ- शुद्ध निश्चय नय वस्तु के शुद्ध स्वभाव की मुख्यता से कथन करता है, इस नय से स्नव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि आत्मा के स्वभाव है ही नहीं तो वह उसका कर्ता कैसे हो सकता है। अर्थात् इस नय से आत्मा संवर भाव से रहित हैं । ऐसा हमेशा विचार करना चाहिए। • विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदोतध्वं । विश्ला भावहितच्चं विरलागं धारणा होदि ।। (का. अ. २७९) अर्थ- जगत में विग्ले मनुष्य ही तत्त्व को सुनते हैं | सुनने वालों में से विरले मनुष्य ही तत्व को ठीक-ठीक जानते हैं। जाननेवालों में से भी विरले मनुष्य ही तन्त्र की भावना सतत अभ्यास करते हैं और सतत अभ्यास करने वालों में से तत्त्व की धारणा विरले मनुष्यों को ही होती है।

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