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बारसाधु वखा
अन्वयार्थ:
७. अशुचित्य - अनुप्रेक्षा शरीर की अशुचिता
अट्टीहिं पडिबद्धं मंस विलितं तएण ओच्छण्णं । किमि संकुलेहिं भरियं अचोक्खं देहं सदाकालं ॥ ४३ ॥
यह गाथा मूलाचार में इस प्रकार है
मंसडि सिंभव सरूहिर चम्म पित्तं तमुत्त कुणिप कुडिं । बहु दुक्ख रोग भायण सरीरमसुभं वियाणाहि ॥ ७२६ ॥ ३
अडीहिं पडिबद्धं
मंसविलितं
तएण ओच्छरणं
किमि संकुलेहिं भरियं
अचोक्खं देहं सदाकालं
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जो हड्डियों से बंधा है ।
मांस से लिप्त है।
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त्वचा / चर्म से आच्छादित है।
कृमियों के समूहों से भरा हुआ है ऐसे
अपवित्र शरीर के विषय में हमेशा चिंतन करो
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भावार्थ- जो हड्डियों के बंधनों से बंधा हुआ है, मांस से लिप्त है, चमड़े से ढका हुआ है तथा कृमि (दो इन्द्रिय आदि जीवों) से जो भरा हुआ है। ऐसे अपने अपवित्र शरीर के विषय में निरंतर चिंतन करना चाहिए।
• सुङ पवित्तं दव्वं सरस सुगंध मणोहरं जं पि ।
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देह - णिहित्तं जायद घिणावणं सुछु दुग्गंधं ॥
॥का अ८४॥