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पराम्परा से भी आस्रव से मोक्ष नहीं
पारंपज्जाएण दु आसकिरियाए णस्थिणिव्वाणं । संसार गमण कारणमिदि जिंदं आसवो जाण ॥५१॥
अन्वयार्थ:
आसव किरियाए पारंपज्जाएण दु णिष्वाणं णस्थि संसार गमण कारणं
- आम्रव रूप किरिया से। - परंपरा से भी - निर्वाण नहीं होता है। - वह तो संसार में गमन करने का कारण है।
इसलिए - आम्रव को निदनीय जानो ।।५९||
आसवो जिंदं जाण
भावार्थ- निश्चय नय से शुभ आम्रव रूप क्रिया से परपरा से भी निर्वाण या मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। क्योंकि वह संसार गमन में कारण है इसलिए निश्चय नय से आम्रव को निदनीय कहा है।
• सपणाओ यतिलेस्सा इंदियवसदाय अट्टाहाणि । णाणं च दुप्पउत्त मोहो पावप्पदो होदि ।।१४८।।
पांचास्तिकाय। अर्थ- चारों संज्ञाये, तीन अशुभलेशयाएं, इन्द्रिओं की अधीनता, अर्ति-रौद् ध्यान, अशुभ कार्यों में लगा हुआ ज्ञान और मोह (मिथ्यात्व) ये पापरूप
मोहनीय कर्म के आस्रव के कारण है।