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बारसाणु पैयखा
अन्वयार्थ:
मिथ्यात्व और अविरति के भेद
एयंत विणय विवरिय संसयमण्णाण मिदि हवे पंच । अविरमणं हिंसाठी पंचविहो सो हषइ नियमेण ॥ ४८॥
एयंत विणय विवरिय
संसय अण्णाणं
इदि पंच हवे
णियमेण
हिंसादी पंच विहो
सो अविरमणं हव
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एकांत, विनय, विपरीत
संशय और अज्ञान
भावार्थ एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान इस तरह से थे पांच प्रकार का मिथ्यात्व हैं। तथा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, एवं परिग्रह ये पांच प्रकार के अविरत
हैं ।
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इस तरह ये पांच प्रकार के मिध्यात्व हैं और
नियम से
हिंसादि पांच प्रकार के
वे अविरत होते हैं ॥ ४८ ॥
'दुर्जनस्य च सर्पस्य समता तु विशेषतः । छिद्राभिलषिता नित्यं द्विजिह्वं पृष्ठि भक्षणम् ।।
॥भः व्यधर्मोपदेश उपासकाध्यन ||२३||
अर्थ- दुर्जन पुरुष की और सर्प की विशेष रूपसे समानता है। दोनों ही सदा छिद्रों के (साँप बिल के और दुर्जन दोषों के) अभिलाषी होते है दो जिह्नवा वाले हैं और पीठ पीछे अक्षण करते हैं।