________________
वाराणवस्या
६६
योग के शुभाशुभ भेद
असुहेदर भेदेण दु एक्केक्कं वण्णिदं हवे दुविहं । आहारादी सपणा असुहमणं इदि विजाणेहि॥५०॥
। अन्वयार्थ:
एक्केक्कं असुहेदर
भेदेण .
दुविहं हवे वण्णिदं आहारादी सण्णा असुहमणं इदि विजाणेहि
- अथवा - प्रत्येक - अशुभ और शुभ के - भेद से - दो-दो प्रकार के होते हैं ऐसा - आगम में कहा है तथा - आहार आदि संज्ञा से युक्त मन - अशुभ मन है - ऐसा जानो ॥५०॥
भावार्थ- अथवा प्रत्येक योग के शुभ और अशुभ के भेद से दो-दो भेद हैं। अर्थात् शुभमन और अशुभमन/शुभ वचन और अशुभ वचन, शुभकाय और अशुभकाय ऐसा आगम शास्त्रों में कहा गया हैं। इनमें आहार, भय, मैथुन परिग्रह रूप संज्ञाओं से युक्त मन अशुभ मन है। ऐसा जानना चाहिए।
• संत के दर्शन करने के बाद अंतरंग में जो पुन: दर्शन की अभिलाषा, भावना, सागर की तरह हिलोरें लेने लगती है, वास्तव में अंतरंग
की वही अंतहीन भक्ति मुक्ति की परिचायक है।
|आचार्य श्री विराग सागर जी।