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[नारसाष्णु वेवस्था
अन्वयार्थ:
संसार - परिभ्रमण कर्मास्रव के कारण
जम्मसंमुद्दे बहुदोसवीचिये दुक्खजलचराकिण्णे | जीवस्स परिम्भरणं कम्मासवकारणं होदि ॥५६॥
दुक्खजलचराकिण्णे
बहुदोसवीचिये
जम्मसमुद्दे जीवस्स परिब्भमणं
कारणं
कम्मासवकारणं होदि
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दुख रूपी जलचरों से भरे हुए
बहुत दोष रूपी तरंगों से
जन्म मरण रूप संसार समुद्र में जो
जीव का परिभ्रमण हो रहा है।
युक्त
इस का मूल कारण
कर्मों का आम्रव है ||५६||
• देवहं सुत्थहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ । त्रिमें पाउ हवे तसु जे संसारू भमेइ || |प.प्र.२ / ६२ ।।
भावार्थ- दुख रूपी जलचर (मगरमच्छों से भरे हुए, बहुत दोषों रूपी तरंगो से युक्त जन्म मरण रूप महा समुद्र में जो जीव का परिभ्रमण हो रहा है। उसका मुल कारण एक मात्र कर्मों का आसव है ।
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अर्थ- वीतरागदेव, जिनसूत्र और निग्रंथ मुनियों से जो जीव द्वेष करता है, उसके निश्चय से पाप होता है, जिस पाप के कारण से वह जीव संसार में भ्रमण
करता है अर्थात् परम्पराय मोक्ष के कारण और साक्षात् पुण्यबंध के ब- शास्त्र गुरू है, इनकी जो निंदा करता है उसे
कारण जो देव -: नियम सेपाप होता है, पाप से दुर्गति में भटकता है ।