________________
[वारसाण करता
उपयोगों का फल
असुहेण णिरय-तिरियं, सुहउबजोगेण दिविस-पर-सोक्खं। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥४२॥
अन्वयार्थ:
असुहेण णिरय तिरियं
सुह उवजोगेण दिविज णर सोक्खं सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो
- (यह जीव) अशुभ उपयोग से नरक तर्यच
गति को - शुभोपयोग से - देव तथा मनुष्यों के सुखों को तथा • शुद्धोपयोग से मोक्ष को प्राप्त करता है . इस प्रकार लोक के स्वरूप का विचार करना
चाहिए ।।४२||
भावार्थ- यह जीव अशुभोपयोग से नरक तिर्यंच गति के दु:खों को प्राप्त करता है तथा शुभोपयोग से देव तथा मनुष्यों के सुखों को एवं शुद्धोपयोग से मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार लोक के स्वरूप का निरंतर चिंतन करना चाहिए।
• सव्वे कम्म-णिबद्धा संसरमाणा अणइ-कालम्हि । पच्छा तोडिय बंध सिद्धा सुद्धा धुवं हीति ।।
का. अनु. २०२॥ अर्थ- सभी जीव अनादिकाल से कर्मों से बंधे हुए है इसी से संसार में भ्रमण करते हैं। |
पीछे कर्म बंधन को तोड़कर जब निश्चल सिद्ध पद पाते हैं तब शुद्ध होते हैं।