________________
पारसाणवक्रवा
संसार में सुख दुःख होते ही है
संजोग विप्पजोगं लाहालाहं सुहं च दुक्सं च ।
संसारे भूदाणं होदि हु माणं तहावमाणं च ॥३६॥ यह गाथा मूलाधार में इस प्रकार हैसंजोग विप्पओगा लाहालाहं सुहं च दुक्खंच। संसारे अणुभूदा माणं च तहावमाणं च ।।७११॥ अन्वयार्थ:भूदाणं
- जीवों को संसारे दु
- संसार में नियम से संजोग विप्पजोगं - संयोग और वियोग लाह च अलाहं
• लाभ और अलाभ सुहं च दुक्खं
- सुख और दुख तहा माणं च अवमाणं ___ - तथा मान और अपमान होदि
- होता है ।।३६||
भावार्थ- जीवों को संसार में नियम से संयोग और वियोग, लाभ और अलाभ, सुख और दुःख तथा मान और अपमान होता है।
• अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः | नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतसः॥
समाधि तंत्र ३८|| अर्थ- जिसके चित्र का रागादिक रूप परिणमन होता है उसी के अपमानादिक होते है। जिसके चित्र का राग द्वेषादिरूप परिणमन नहीं होता उसके
अपमान-तिरस्कारादि नहीं होते है।