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वारसाणु वैवस्था
अन्वयार्थ:
४. भव परिवर्तन संसार
शिरयाउ जहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लिया दु गेवेज्जा | मिच्छत्त संसिदेण दु बहुसो वि भवह्निदी ||२८||
मिच्छत्त संसिदेण
जाव दु उवरिल्लिया हु गेवेज्जा
णिरयादि
जहण्णादिसु
भवदिदी बहुसो वि भमिदो
AM
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( इस जीव ने ) मिथ्यात्व के संसर्ग से
उपरिम ग्रेवेयक से लेकर
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नरक आदि की
जघन्य आदि
स्थितियों से युक्त होकर
अनेक बार भ्रमण किया ||२८||
भावार्थ- मिथ्यात्व के संसर्ग से इस जीवने उपरिम गैवेयक से नरक तिर्यंच मनुष्य और देवों की जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट स्थितियों से युक्त 'होकर क्रमश: अनेक बार भ्रमण किया है।
विशेषार्थ भव परिवर्तन का स्वरूप - नरक गति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। एक जीव उस आयु से वहां उत्पन्न हुआ, पुनः धूम-फिरकर उसी अग्यु से वहीं उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मरा। पुनः आयु के एक-एक समय बढ़ाकर नरक की तें सीस सागर आयु समाप्ति की। तदनन्तर नरक से निकलकर अन्तर्मुहूर्त आयुके साथ तिर्यंचगतिमें उत्पन्न हुआ। और पूर्वोक्त क्रमसे उसने तिर्यंचगति की तीन पल्योपम प्रमाण आयु समाप्त की । इसी प्रकार मनुष्यगति में अन्तर्मुहूर्त से लेकर तीन पल्योपम प्रमाण आयु समाप्त की । तथा देवगतिमें नरक गति के समान आयु समाप्त की । किन्तु देवगति में इतनी विशेषता है कि वहां इकतीस सागरोपम आयु समाप्त होने तक कथन करना चाहिए क्योंकि इस के आगे मिथ्यात्व के साथ उत्पन्न नहीं हो सकता है। ग्रैवेयक के ऊपर नियम से सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार यह सच मिलकर एक भवपरिवर्तन है।