Book Title: Barsanupekkha
Author(s): Kundkundacharya, Vishalyasagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 42
________________ बारसाणू पेपरवा २. क्षेत्र परिवर्तन संसार सम्हि लोयखेने कमसो तंणत्धि जंण उप्पण्णं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत संसारे ॥२६॥ अन्वयार्थ: खेत्त संसारे उग्गाहणेण सव्वम्हि लोय खेत्ते . परिभमिदो तंत्थि क्षेत्र संसार में जघन्य उत्कृष्ट अनेक प्रकार की अवगाहना के द्वारा सम्पूर्ण लोक के प्रत्येक क्षेत्र में परिभ्रमण करते हुए एक भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहां (यह जीव) क्रम से अनेक बार उत्पन्न नहीं हुआ हो कमसो बहुसो उप्पण्णं ण भावार्थ- क्षेत्र परिवर्तन रूप संसार में जघन्य उत्कृष्ट आदि अनेक प्रकार की अवगाहना शरीर की ऊंचाई के द्वारा सम्पूर्ण लोक के प्रत्येक क्षेत्र में परिभ्रमण करते हुए ऐसा एक भी प्रदेश शेष नहीं है जहां यह जीव क्रम से अनेक बार उत्पन्न नहीं हुआ हो। विशेषार्थ- जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव लोकके आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीकर मर गया। पश्चात् वही जीव पुनः उसी अवगाहना से वहां दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथीबार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार घनांगुलके असंख्यतावें भाग में आकाश के जितने प्रदेश प्राप्त हों उतनी बार वही उत्पन्न हुआ पुन: उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकरसब लोक को अपना जन्म क्षेत्र बनाया इस प्रकार यह सब मिलकर क्षेत्रपरिवर्तन होता है।

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