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बारसाणु पेतरवा
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥ अष्टपाहुड ||
यह उद्घोष कर उन्होनें विभिन्न मत-मतान्तरों का सुयुक्तियों से युक्त खंडन किया एवं तीर्थेश भगवंतों की परम वीतरागी परंपरा को कायम रख, सर्वजन हिताय महिमा -
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मण्डित किया ।
धन्य हैं ऐसे प्रबद्ध चेतना के धनी आचार्य प्रवर जिनके द्वारा सृजित साहित्य, मुक्ति पथिकों के आलोकदायी दीपस्तंभ हैं ।
समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड़, नियमसार आदि, जैसे महान ग्रंथ शुद्धात्म-तत्त्व में अवगाहन की और प्रबल प्रेरणास्पद सिद्ध होते हैं वहीं बारसाणु पेक्खा जैसा अनुपम ग्रंथ आध्यात्म रस को पाने हेतु जैराग्य की शिक्षा देता है ।
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शुद्धात्मानुभूति का रसास्वादन करने के लिऐ जिस परमध्यान की अनिवार्यता बतलाई गई है, उसी ध्यान को पाने के लिए भावना भाना आति आवश्यक है। इसी भावना का नाम अनुपेक्षा है, जो कि बारह है। बारसाणुपेक्खा ग्रंथ इन्हीं बारह अनुपेक्षाओं को प्रतिपादन करने वाला है । अनुपेक्षा यानि अनु+प्रेक्षा, पेक्षा अर्थात ध्यान अनु यानि समीपस्थ (निकट) | जो ध्यान के निकट ले जाए वह है अनुप्रेक्षा ।
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विध्याति कषायाग्निर्विगलतिरागो विलीयते ध्वान्तम् ।
उन्मिषति बोधदीयो हृदिपुंसां भावनाभूयसात् ॥
सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपादाचार्य ने कहा है- शरीरादीनां स्वाभावनुचिन्तन अनुप्रेक्षा अर्थात् शरीरादिक के स्वभाव का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। संवेग-वैराग्य को उत्पन्न करने वाली एवं जीवन के रहस्यों को उद्घाटित करने वाली ये बारह अनुपेक्षाऐं वैरागी के लिए जननी तुल्य है भविय-जणाणंद-जणणीओ (का. अनु. ) शुभचंदाचार्य ने ज्ञानार्णव ग्रंथ में कहा भी है
इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से मनुष्यों के हृदय में कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है, तथा परद्रव्यों के प्रति रागभाव गल जाता है। और अज्ञानरूपी अंधकार