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बारसाण पपरया
आराधना रूप आत्मा ही शरण है
सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित च सत्तवो चेष । चउरो चिट्ठदि आदे तम्हा आदाहु मे सरणं ॥१३||
अन्वयार्थ:
सम्मत सण्णाणं च सम्चारित्तं - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र च एक सत् तयो
- तथा इसी प्रकार सम्यक् तप चउरो आदे चिट्ठदि . - ये चारों आत्मा में ही रहते हैं तम्हा हु
- इसलिए निश्चय से मे भासा सणे ... मुझे झात्मा ही शरण है ॥१३॥
भावार्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ये चारों आराधनायें आत्मा में ही रहती है अर्थात् आत्मा ही चारों आराधना रुप चेष्टा करता है इसलिये निश्चय से मुझे वह अपनी आत्मा ही शरण है।
• यस्मिन्संसार कान्तारे यमभोगीन्द्र सेविते। पुराणपुरुषा: पूर्वमनन्ताः प्रलयं गताः॥
(ज्ञा. आ.) अर्थ- काल रूप सर्प से सेवित संसार रूपी वन में पूर्व काल में अनेक पुराणपुरूष (शलाकापुरूष) प्रलय को प्राप्त हो गये, उनका विचार कर शोक करना वृथा है।