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वारसा पसरवा
अकेला ही पाप करता और फल भोगता
एक्को करेदि पावं विसयणिमित्तेण तिव्यलोहेण । णिरय तिरियेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को।।१४||
- यह जीव
अन्वयार्थ:
जीयो तिव्वलोहेण विसय णिमित्तेण एक्को करेदि पावं तस्स फलं णिरय तिरियेसु एक्को भुंजेदि
- तीव्र लोभ से युक्त होकर - विषयों के निमित्त से , अकेला पाप करता है - उसके फलों को - नरक और तिर्यंच गति में - अकेला ही भोगता हैं। ||१५||
भावार्थ- यह संसारी जीव तीव्र लोभ से युक्त होकर के, पंचेन्द्रियों के विषयों के निमित्त अकेला ही पाप करता है और उसके फलों को नरक व तिर्यंच गति में जाकर अकेला ही भोगता है। तात्पर्य यह है कि अपने द्वारा किये पापों से नरक व तिर्यंच गति में जाता है। और वहां पाप के फलों को अकेला ही भोगता है।
• एकत्वं किं न पशयन्ति, जड़ा जन्मग्रहर्दिताः ।
यज्जन्म मृत्युसम्पाते, प्रत्यक्षमनुसूयते ।।ज्ञानार्णव।। अर्थ-आचार्य महाराज कहते है कि, ये मूर्ख प्राणी संसाररूपी पिशाच से पीड़ित हुए भी अपने एकता को क्यों नही देखते जिसे जनममरण
प्राप्त होने पर सब ही जीव प्रत्यक्ष में अनुभवन करते है.