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बारसाणु पैवखा
अन्वयार्थ:
मण्णंती
मम णाहगोत्ति
मदोत्ति
अण्णोअण्णं
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अपणो अण्णं सोयदि मदोत्ति मम णाहगोत्ति मण्णंतो ! अप्पाणं णहु सोयदि संसार महण्णवे बुद्धं ||२२||
मोह की माया
सोयदि
संसार महण्णवे बुडुं
अप्पा हु सोयदि
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प्राय: संसारी प्राणी ऐसा मानते हैं कि
जो मेरा नाथ था वह
मर गया इत्यादि प्रकार से
एक दुसरे के विषय में
सोचता हैं (शोक करता हैं किंतु )
संसार समुद्र में डूबती हुई
(अपनी ) आत्मा के विषय मे नहीं सोचता है | ||२२||
भावार्थ- प्राय: प्राणी यह सोचता है कि जो मेरा नाथ / स्वामी / पालक / संरक्षक था। वह मर गया । इत्यादि प्रकार से परस्पर एक दूसरों के विषय में सोचता हैं शोक करता है परंतु संसार रूपी महार्णव / समुद्र में डूबती अपनी आत्मा के विषय में कुछ भी नहीं सोचता।
• अंधी निवडइ कूबे बहिरों ण सुणेदिं साधु उवदेस | पेच्छं तो णिसुतो मिरए जपज्इ तं चोज्जं ।। || तिलोयपण्णी ६२२॥
अर्थ- यदि अन्धा कुएँ में गिरता है और बहरा सदुपदेश नहीं सुनता तो कोई आश्चर्य नहीं किन्तु जो देखता एवं सुनता हुआ नरक में पड़ता है। तो आश्चर्य है।