Book Title: Barsanupekkha
Author(s): Kundkundacharya, Vishalyasagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 34
________________ सारसाररवा सिद्धि किसे नहीं दसण भट्टा भट्टा, देसण भट्टस्य.णस्थिणिवाणं । सिझंति चरियभट्टा, दंसण भट्टा ण सिझंति ।।१९।। अन्वयार्थ: दसण भट्टा भट्टा दसण भट्टस्स णिव्वाणं णस्थि चरिय भट्टा सिझंति - दर्शन से भ्रष्ट, भ्रष्ट हैं, क्योंकि - दर्शन से भ्रष्ट रहित जीव को • निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती है। - चारित्र से भ्रष्ट - (फिर भी) सिद्धि / मुक्ति को प्राप्त कर सकता है किन्तु - दर्शन से भ्रष्ट को सिद्धि मुक्ति/निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती ||१९|| दसण भट्टा सिझंतिण भावार्थ- दर्शन से भ्रष्ट (पतित) वास्तव में भ्रष्ट ही है। क्योंकि दर्शन से रहित जीव को निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति नहीं होती, चारित्र भ्रष्ट एक दृष्टि से मुक्ति पा सकता है किन्तु दर्शन से भ्रष्ट जीव कभी भी मुक्ति को नही पा सकता हैं। • विसया मिसेहि पुण्णो अणत सोक्खाप हे दुसम्मत्तं। सच्चारित्त जहदि हु हणं व बज्ज च मज्जादणं ।। अर्थ- विषय भोगों से परिपूर्ण पुरुष अनन्त सुख के कारण भूत सम्यकत्व. सम्यक्चारित्र तथा लज्जा और मर्यादा को तृण समझ छोड़ देता है।

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