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बारसाणु पेक्खा
२. अशरण- अनुप्रेक्षा
ये सभी मृत्यु से नहीं बचा सकते
मणि मंतो- सह - रक्खा हय गय रह ओ य सयल विज्जाओ । जीवाणं णहि सरणं तिसु लोए मरणसमयहि ||८||
सह गाथा मूलाचार इस प्रकार है
हयगय रहार बल वाहणाणि मंतोसाधाणि विज्जाओ । मच्छुभयस्स ण सरणं णिगडी णीदीय णीया च ।। ६९७।।
अन्वयार्थ:
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तिसु लोए जीवाणं
मरण समयहि
मणि मंतओ सह रक्खा
हयगय रहओ य
सयल विजाओ
सरणं हि
तीनों लोक में जीवों को
मृत्यु / मरण के समय
मणि, मंत्र, औषधि
घोड़ा, हाथी, रथ,
सम्पूर्ण विद्यायें (भी)
शरण नहीं है ||८||
और
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भावार्थ- ऊर्ध्व, मध्य तथा अधो इन तीनों लोकों में जीव को मृत्यु से न तो कोई मणिबचा सकता है, न मंत्र न औषधियाँ, यहां तक ही नहीं किंतु शक्तिशाली हाथी, वेग से दौड़ने वाला घोड़ा, सुदृढ़ ( मजबूत ) रथ एवं विश्व की सम्पूर्ण विद्यायें भी नहीं बचा सकती है अर्थात् ये कोई भी हमारे लिये शरण भूत नहीं है।
पर हाँ! यदि आत्मा की भव भ्रमण से रक्षा करने वाली कोई शरण है तो वह हैंचत्तारिशरणं, अरहंत, सिद्ध, साधू, और केवली प्रणीत धर्म है अथवा "शुद्धातम अरु पंच "गुरु जग में शरणा दोय" हमारा आत्मा तथा अरहंत सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी ही हमें शरण भूत है और कोई हमारे लिये शरण नहीं है। ऐसा चिंतन करने से दीनहीनता समाप्त होती है और आत्म कल्याण रूप लक्ष्य में एकाग्रता बढ़ती है।