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बारसाणु पक्रता
जरा सोच प्रस्तुति -
मुनि विशल्य सागर जी चाहता हूँ पुष्प यह , गुलदान का मेरे, न मुरझाये । न कुमलाये कभी देता रहे, सौरभ सदा अक्षुण्ण इसका, रूप हो । पर यह कहां संभव, कि जो है आज वह कल को कहाँ ?, उत्पत्ति यदि अवसान निश्चित ।, आदि है, तो अंत भी है ।, अर्क का उदय तो अस्त भी है ।, जरा सोच । उगते / ढलते सूरज की लाली खिलते / मुरझाते जलज की कहानी कह रहे है। ये सभी रूप/लावण्य जीवन/यौवन, मान सम्मान मकान/दुकान, शासन/आसन राशन/वासन, यान/चाहन तन/धन, स्वजन/परिजन सत्ता/छल्ता. चित्त/वित्त भोग/उपभोग, संयोग/नियोग है इनका, नियामक वियोग काल का प्रवाह में वह रहा है
और बहता बहता कह रहा है। यह जीवन पल-पल इसी प्रवाह में बह रहा, बहता जा रहा है।
और चलता हुआ कहता जा रहा है यहाँ पर कोई भी . चिर....ध्रुव - थिर.....। नरहा न रहेगा। जरा सोच